Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 851
________________ ८३२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग करने का निर्देश दिया। अहमदाबाद के सभी बड़े-बड़े जौहरियों ने उन दोनों मोतियों की परीक्षा करने के पश्चात मोहम्मदशाह के समक्ष अपना अभिमत व्यक्त करते हुए कहा--"ये दोनों मोती बड़े श्रेष्ठ हैं, इनका जो मूल्य बताया गया है, वह भी उचित ही है।" ___“इन सब जौहरियों की आंखों पर पर्दा कैसे पड़ गया है", इस विचार से लोकाशाह के मुख मण्डल पर व्यंग भरी हंसी हठात् उभर आयी। मोहम्मदशाह ने उस युवा वय के जौहरी की मुखमुद्रा से ताड़ लिया कि दाल में कुछ काला है। उसने दोनों मोती लोकाशाह की हथेली पर रख कर उनकी अच्छी तरह परीक्षा करने का आदेश दिया। लोकाशाह ने एक मोती को नवाब के हाथ पर रखते हुए कहायह मोती तो वस्तुत: श्रेष्ठ और बहुमूल्य है किन्तु इस दूसरे मोती में एक बहुत बड़ी ऐब है, खोट है, इसमें मत्स्य का चिन्ह है अत: यह किसी काम का नहीं। तत्काल सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से मोहम्मदशाह ने मोती को देखा और यह देखकर उसके। आश्चर्य का पारावार न रहा कि उस मोती में वस्तुतः मत्स्य का चिन्ह है। उपस्थित बड़े-बड़े जौहरियों को भी पारदर्शक अथवा सूक्ष्म दर्शक यन्त्र से उस मोती को देखने परखने का बादशाह ने निर्देश दिया। सब ने उस मोती में मत्स्य के चिह्न को देखते हुए उस 'कल के जौहरी' लोकाशाह के "रत्न परीक्षण कौशल" की मुक्त कण्ठ से भूरि-भूरि प्रशंसा की। लोकाशाह तत्काल मोहम्मदशाह के चित्त चढ़ गये। लोकाशाह के परामर्श से आवश्यक जवाहरात का क्रय कर लेने के पश्चात् मोहम्मदशाह ने अन्य सब जौहरियों को विदा किया और लोकाशाह से उनका पूरा परिचय प्राप्त कर उन्हें पाटण के राजस्व अधिकारी (खजांची, ट्रेजरार अथवा तिजोरीदार) के पद पर नियुक्त कर दिया। लोकाशाह अपनी पत्नी व पुत्र के साथ पाटण चले गये। वहां अपने पद के कर्तव्यों का न्याय-नीतिपूर्वक निर्वहन करने लगे। वहां भी उनका स्वाध्याय सामायिक आदि का धार्मिक कार्यक्रम पूर्ववत् चलता रहा। मोहम्मदशाह पाटण के अपने नव नियुक्त राजस्व अधिकारी के न्याय और नैतिकतापूर्ण कार्यकौशल से बड़ा प्रभावित हुआ और कुछ ही समय पश्चात् लोकाशाह को पाटण से बुलाकर अपने पास रख लिया । बादशाह के प्रीतिपात्र बन जाने के उपरान्त भी अभिमान का लेश मात्र भी उनके पास तक नहीं फटक पाया। पीड़ितों के दुःखों को दूर करने की, उनको न्याय दिलाने की उनकी परोपकार परायणतापूर्ण वृत्ति उत्तरोत्तर वृद्धिगत होने के साथ निखरती ही गई । सामायिक, स्वाध्याय एवं प्रात्मचिन्तन का उनका दैनिक धार्मिक कार्यक्रम भी नियमित रूप से चलता रहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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