Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 829
________________ ८१० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ दिशि विघ्नप्रशान्तये सावधानेन स्नानान्तं यावद्भवितव्यमिति"-इन्द्र को स्नान करवाये ? विश्वकबन्धु त्रिलोक पूज्य सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग प्रभु महावीर के श्री मुख से इस प्रकार के परस्पर विरोधी एवं सावध उपदेशों की कल्पना तो किसी ग्रहग्रस्त व्यक्ति के अतिरिक्त कोई सच्चा जैन नहीं कर सकता। इस प्रकार के शास्त्रविरुद्ध सावद्य विधि-विधानों से वस्तुतः आदि से लेकर अन्त तक “निर्वाणकलिका" प्रोत-प्रोत है। इस प्रकार के विधि-विधानों का प्रावधान पादलिप्तसूरि जैसे महान् जिनशासन प्रभावक प्राचार्य कभी नहीं कर सकते । यदि “निर्वाण कलिका" के पक्षधरों को इस बात को किसी भी दशा में मान लिया जाय कि यह प्राचार्य पादलिप्तसूरि की कृति है तो भी चतुर्विध तीर्थ में इस प्रकार की कृति को किसी भी दशा में मान्य नहीं किया जा सकता क्योंकि चतुर्विध जैन धर्मतीर्थ के संस्थापक श्रमण भ० महावीर हैं न कि पादलिप्तसूरि अथवा अन्य कोई भी बड़े से बड़ा सूरि । जिस प्रकार स्वर्ण निर्मित कटारी को अपने पेट में नहीं भोंका जा सकता ठीक उसी प्रकार सर्वज्ञप्ररूपित प्रागमों से नितान्त विपरीत-पूर्णतः प्रतिकूल तथा श्रमणसंस्कृति के प्राणस्वरूप सिद्धान्तों को जलांजलि देने वाले विधि-विधानों को प्रचलित करने वाली कृति किसी सच्चे जैन के द्वारा मान्य नहीं की जा सकती, चाहे उस कृति का रचनाकार कितना ही बड़े से बड़ा प्राचार्य क्यों न रहा हो। विक्रम की बारहवीं शताब्दी में पौर्णमिक गच्छ की स्थापना करते समय क्रियोद्धारक प्राचार्य चन्द्रप्रभसूरि ने किस प्रकार के कटुतर शब्दों में इसकी आलोचना की होगी इसका अनुमान इसी एक ऐतिहासिक तथ्य से लगाया जा सकता है कि उन्होंने श्रमण संस्कृति की आधारशिला को ही मूल से हिला देने वाली कृति “निर्वाणकलिका" को चतुर्विध धर्मसंघ के समक्ष इस उद्घोषणा के साथ अमान्य सिद्ध कर दिया कि-प्रतिष्ठा द्रव्य स्तव होने के कारण साधु के लिये कर्त्तव्य नहीं है । प्राचार्य चन्द्रप्रभसूरि की उक्त घोषणा का प्रभाव चतुर्विध धर्मसंघ पर उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में आगमिक गच्छ के प्राचार्यश्री तिलकसूरि ने नव्य प्रतिष्ठाकल्प की रचना कर उसमें प्रतिष्ठा विषयक सभी कर्तव्य केवल सुयोग्य श्रावक के द्वारा ही करवाये जायं, न कि किसी आचार्य अथवा श्रमण के द्वारा-इस प्रकार का विधान कर, चन्द्रप्रभसूरि द्वारा किये गये प्रतिष्ठाविधि विषयक क्रियोद्धार को एक प्रकार से व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। “निर्वाणकलिका' में उल्लिखित प्रतिष्ठा विषयक विधि-विधानों के सम्बन्ध में प्रतिष्ठा, ज्योतिष, इतिहास ग्रादि अनेक विषयों के उद्भट विद्वान् स्व० पन्यास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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