Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 818
________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] [ ७६६ अस्थि-मज्जा में, रोम-रोम में प्रोत-प्रोत था। लोंकाशाह ने अपने अनुयायियों को भी अन्तिम श्वास तक बिना शत्रु मित्र का भेद किये जैनत्व के प्रतीक स्वरूप इस भाव पर अड़े रहने का, डटे रहने का उपदेश दिया। लोकाशाह द्वारा अपने अनुयायियों के अन्तर्मन में ढाले गये इन विश्वबन्धुत्व के भावों का ही प्रतिफल थाअमिट प्रभाव था कि लोकाशाह के स्वर्गस्थ हो चुकने के लगभग ६५ वर्ष पश्चात् भी वि० सं० १६३६ में लोकाशाह के देवजी नामक अनुयायी ने तत्कालीन जिन शासन प्रभावक तपा गच्छ के ५८ वें गच्छाधिपति श्री हीरविजयसूरि को अपने यहां आश्रय देकर मुगलों से उनकी रक्षा की ।' ये सब तथ्य इस बात के द्योतक हैं कि लोंकाशाह का आध्यात्मिक जीवन अथाह सागर तुल्य गाम्भीर्य से अोतप्रोत और लोकाकाश की ऊंचाई तुल्य उच्च था। उनका स्थान देवद्धिगरिणक्षमाश्रमण के स्वर्गारोहणान्तर जितने भी क्रियोद्धारक, धर्मोद्धारक हुए, उनमें सर्वोच्च था। लोकाशाह ने विकट से विकट परिस्थितियों में भी सर्वज्ञ प्रणीत शाश्वत सत्य सिद्धान्तों को बलिवेदी पर चढ़ाकर असत्य के पक्षधरों के साथ समझौता नहीं किया। शाश्वत सत्य सिद्धान्तों की रक्षा के लिये निर्भीकता और साहस के साथ निरंतर जूझते रहने वाले सुदीर्घ अतीत में हुए कुवलय प्रभ नामक महान आचार्य से भी लोकाशाह बहुत आगे बढ़ गये । अति पुरातन हुण्डावसर्पिणी काल में कुवलयप्रभ नाम के एक महान् क्रियानिष्ठ प्राचार्य हुए हैं। उनका आख्यान महा निशीथ में विद्यमान है । उनके समय में असंयत पूजा नामक दशम आश्चर्य के प्रबल प्रभाव के कारण चारों ओर शिथिलाचारी चैत्यवासियों का दौर दौरा था, प्राबल्य था। वे केवल नाम मात्र से ही श्रमण कहलाते थे। उनका प्राचार विचार शास्त्रों में प्रतिपादित श्रमणाचार से पूर्णतः प्रतिकूल था । वे चैत्य निर्माण, द्रव्य पूजा और आडम्बर पूर्ण अनुष्ठानों को ही मोक्ष प्रदायी वास्तविक धर्म मानते थे। भाव पूजा में उनका कोई विश्वास नहीं था। वे चैत्यों में नियत निवास करते, प्रारम्भ, समारम्भ में निरत रहते प्राधाकर्मी आहार करते और अपने पास द्रव्य रखते थे । अप्रतिहत विहार करते हुए आचार्य कुवलयप्रभ एक समय उन चैत्यवासियों के बीच जा पहुँचे । उनकी तपोपूत शान्त मुख मुद्रा पर और तत्व विवेचन की हृदयहारिणी प्रवचन शैली पर चैत्यवासी मुग्ध हो उनसे प्रार्थना करने लगे-"प्राचार्य प्रवर ! हम पर कृपा कर इस बार का चातुर्मासावास हमारे यहीं कीजिये । आपके परम प्रभावोत्पादक उपदेशों से हमारे नगर के प्रत्येक भाग में, हर गली में गगन चुम्बी विशाल चैत्यों के निर्माण हो जायेंगे।" १. तपागच्छ पट्टावली (पं० कल्याण विजय जी द्वारा सम्पादित) पृष्ठ-२२७ और प्रस्तुत ग्रंथ (जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग-४) पृष्ठ ५८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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