Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 814
________________ सामान्म श्रुतधर काल खण्ड २ ] [ ७६५ कीति के पास पढ़ना प्रारम्भ किया और किस सम्वत् में पंन्यास हरिकीर्ति ने उनसे यह प्रश्न किया कि लोंकाशाह आदि में से किसको युगप्रधान माना जाय । इसके उपरान्त भी पट्टावली में उल्लिखित कडुवाशाह के जन्म, गहस्थवास, सामान्य संवरीकाल, पट्टधर काल और उनके परलोक गमन की तिथि आदि तथ्यों से सहज ही यह निर्णय किया जा सकता है कि वे किस संवत् से किस संवत तक पंन्यास हरिकीति के पास व्याकरण, छन्द शास्त्र, वाद शास्त्र और आगमों का अध्ययन करते रहे और किस संवत् में पंन्यास हरिकीर्ति ने उनसे यह प्रश्न करने के पश्चात् कि लोंकाशाह आदि में से किसको युगप्रधान माना जाय, उन्हें श्रावक के वेश में “संवरी” बने रह कर आत्म कल्याण करते रहने का परामर्श दिया गया। __ कडुवाशाह का जन्म नाडोलाई गांव में बीसा नागर जातीय ब्राह्मण कानजी महता की धर्मपत्नी की कुक्षि से वि० सं० १४६५ में हुआ। आठ वर्ष की वय होते ही बालक कडुवा मेहता हरिहर के पद बनाने लग गया था।' संयोगवशात् अंचल गच्छ के एक श्रावक के माध्यम से बालक कडुवाशाह अंचल गच्छ के श्रमणों के सम्पर्क में पाया। कडुवा जैन धर्म के विश्वकल्याणकारी सिद्धान्तों की ओर आकर्षित हुआ और पूर्व जन्म के संस्कारों के परिणामस्वरूप वह संसार से विरक्त हो गया। उसने माता-पिता से अनुरोध किया कि वे उसे श्रमण धर्म में दीक्षित होने की आज्ञा प्रदान करें। . अपने पुत्र के इस प्रस्ताव से ब्राह्मण दम्पत्ति बड़े खिन्न एवं रुष्ट हुए । सतत् अनुरोध के उपरान्त भी बालक कडुवा को श्रमण धर्म में दीक्षित होने की अपने माता-पिता से अनुज्ञा नहीं मिली तो दीक्षा ग्रहण करने की धुन में वह एक दिन घर छोड़कर इधर-उधर घूमता हुआ अहमदाबाद पहुँचा और रूपपुरा की शून्यशाला में उपस्थित हुआ। उस समय बालक कडुवाशाह की आयु लगभग १३ वर्ष की अनुमानित की जा सकती है। इस अनुमान के आधार पर यह कहना युक्ति संगत ही होगा कि कडुवाशाह ने वि. सं. १५०७ से १५०८ के बीच किसी समय पंन्यास हरिकीति के पास उपस्थित होकर व्याकरण, छन्द शास्त्र न्याय एवं आगमों का अध्ययन प्रारम्भ किया। इन सब विद्याओं एवं प्रागमों का ज्ञानोपार्जन कर पारंगत होने में सुतीक्ष्ण बुद्धिशाली एवं प्रतिभासम्पन्न कडुवाशाह को कम से कम ६-७ वर्ष का समय तो अवश्य ही लगा होगा । इस प्रकार विक्रम संवत् १५१४ के आस-पास अपना अध्ययन सम्पन्न हो जाने के पश्चात् अपने गुरु पंन्यास हरिकीर्ति से पंचमहावतों की श्रमण दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की होगी। उसी समय वि. सं. १५१४ में पंन्यास हरिकीर्ति ने कडुवाशाह से प्रश्न किया होगा कि पौर्णमिक, खरतर, अंचल, सार्द्ध पौर्णमिक त्रिस्तुतिक तथा तपागच्छ के प्राचार्यों और वि. सं. १५०८ में अपने आग्रह से नया मत चलाने वाले लोंकाशाह में से किस को १. कडुवा-मत गच्छ पट्टावली, पट्टावली पराग संग्रह, पृ० ४८० । . . .... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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