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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
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"लंकामत प्रतिबोध कुलक" से यह तथ्य भी प्रकाश में आता है कि वि० सं० १५३० तक अथवा इससे पूर्व ही पंन्यास पद विभूषित हर्ष-कीर्ति जैसे विद्वान् श्रमणाग्रणी भी अपने शिष्य परिवार के साथ अपनी-अपनी शिथिलाचार परायण श्रमण परम्पराओं का अथवा गच्छों का परित्याग कर लोंकाशाह द्वारा पूनः प्रकाश में लाये गये विशुद्ध आगमिक पथ के पथिक बन गये थे और लोंकाशाह द्वारा अभिसूत्रित की गई अभिनव शीत धर्मक्रान्ति के अग्रदूत अथवा संदेशवाहक के रूप में लोकाशाह के अभिनव आगमिक संदेश को जन-जन तक पहुंचाने में सर्वात्मनासर्वभावेन संलग्न हो चुके थे।
कडुवामत-गच्छ की पट्टावली इस सम्बन्ध में एक बड़े ही आश्चर्यकारी नवीन तथ्य का उद्घाटन करती है । कडुवामत पट्टावली के उल्लेखानुसार कडुवाशाह नामक एक किशोर आगमिक पंन्यास हरिकीर्ति के पास रूपपुरा-अहमदाबाद की एक शून्य शाला में पहुँचा । पं० हरिकीर्ति शुद्ध प्ररूपक संवेग पक्षीय साधु थे । कडुवाशाह ने पं० हरिकीर्ति को अपना परिचय देते हुए प्रार्थना की कि कृपा कर वे उसे श्रमण धर्म की दीक्षा प्रदान करें। पं० हरिकीति ने सोचा--मैं अगर इसको योग्य मार्ग न दिखाऊँगा तो यह किसी कपटी कुगुरु के जाल में फंस जायेगा, उन्होंने कडुवा से कहा-"प्रथम, दशवकालिक के ४ अध्ययन पढ़ने से ही दीक्षा पाली जा सकती है, इस वास्ते तुम दशवैकालिक के ४ अध्ययन पढ़ो।" उसने स्वीकार किया और पं० हरिकीर्ति के पास दशवकालिक के चार अध्ययन अर्थ के साथ पढ़े । चार अध्ययन पढ़ने के बाद कडुआ ने उन्हें पूछा-"पूज्य ! सिद्धान्त मार्ग तो इस प्रकार का है, तब आजकल साधु इस मार्ग के अनुसार क्यों नहीं चलते ? हरिकीर्ति ने कहा-"अभी तुम पढ़ो और सुनो, बाद में सिद्धान्त की चर्चा में उतरना।" महता कडुवा ने पंन्यास के पास सारस्वत व्याकरण, काव्य शास्त्र, छन्द शास्त्र, चिन्तामणि प्रमुख वादशास्त्र पढ़े और आचारांग आदि सूत्रों के अर्थ सुनकर वे प्रवीण हुए। बाद में पंन्यास हरिकीर्ति ने कडुवा को कहा- "हे वत्स ! अाचारांग आदि सूत्रों में जो साधु का आचार लिखा है वह आज के साधुनों में देखा नहीं जाता, आज के सर्व यति पूजा-प्रतिष्ठा कल्पित दान आदि कार्यों में लगे हुये हैं, जिन मन्दिरों के रक्षक बने हुए हैं, क्योंकि वर्तमान में दसवां अच्छेरा (आश्चर्य) चल रहा है, यह कह कर उसने "ठारणांग" सूत्र की आश्चर्य प्रतिपादक गाथाएं, संघ पट्टक की गाथाएं और "षष्टिशतक प्रकरण" की गाथाएं सुनाकर वर्तमानकालीन साधुनों की प्राचार हीनता का वर्णन किया और उसकी श्रद्धा कुण्ठित करने के लिये हरिकीर्ति ने पिछले समय में जैन श्रमणों में होने वाली धड़ाबन्दियों का विवरण सुनाया। उन्होंने कहा-“११५६ में पौर्णमिक, १२०४ में खरतर, १२१३ में अचल, १२३६ में सार्द्ध पौर्णमिक, १२५० में त्रिस्तुतिक, १२८५ में तपा अपनेअपने प्राग्रह से उत्पन्न हुए। १५०८ में लुंका ने अपने आग्रह से मत चलाया। अब तुम ही कहो कि इन नये गच्छ प्रवर्तकों में से किसको युगप्रधान कहना और किसको
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