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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह
[ ७८१ में दीक्षित होने की आन्तरिक उत्कट अभिलाषा होने के उपरान्त भी पंच महाव्रतों की दीक्षा नहीं ली और उन्होंने वि० सं० १५२५ में श्रावक वेश में संवरी रहते हुए अपने मत का प्रचार-प्रसार प्रारम्भ कर दिया। कडुवाशाह ने "कडुवागच्छ” की स्थापना कडुवागच्छ की पट्टावली के अनुसार वि० सं० १५२५ में और तपागच्छ पट्टावली के उल्लेखानुसार वि० सं० १५६२ में की। इस संबंध में तपागच्छ पट्टावली का उल्लेख इस प्रकार है :
"तदानीं वि० द्वाषष्ठ्यधिक पंचदशशत १५६२ वर्षे “सम्प्रति साधवो न दृग्पथमायान्तीत्यादिप्ररूपणापरक कटुकनाम्नी गृहस्थात् त्रिस्तुतिकमतवासितो कटुक नाम्ना मतोत्पत्ति ।"
जैन धर्मसंघ में व्याप्त अनागमिक आडम्बर पूर्ण प्रवृत्तियों, मान्यताओं विधि-विधानों, थोथे कर्मकाण्डों, विकारों, श्रमणाचार में व्याप्त सार्वत्रिक घोर शिथिलाचार, आगमिक सिद्धान्तों के प्रति उपेक्षापूर्ण अवहेलनात्मक अवस्था का समूलोन्मूलन कर विशुद्ध आगमिक मान्यताओं की पुनः प्रतिष्ठापना के एक मात्र सदुद्देश्य से लोंकाशाह द्वारा प्रारम्भ की गई धर्मक्रान्ति का ही प्रभाव था कि विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के प्रथम दशक में सर्वज्ञ प्रणीत विश्वकल्याणकारी जैन धर्म के विशुद्ध स्वरूप के प्रति सजगता-जागरूकता से प्रोत-प्रोत एक अभिनव जागरण की एक अदम्य अमित लहर जैन-जगत के जन मानस में तरंगित हो उठी। क्रान्ति के उस शंखनाद से सुदीर्घकालीन प्रगाढ़ मोह निद्रा में सोये जैन जगत् को विदित हुआ कि आगम प्रतिपादित धर्म के स्वरूप में श्रमणाचार में और उनके तत्कालीन धर्माध्यक्षों, धर्मगुरुओं अथवा जिन शासन के कर्णधारों के प्राचार-विचार अथवा आचरण में आकाश पाताल का अन्तर है, दोनों एक दूसरे से अमित-अपरिमेय कोसों दूर हैं। लोकप्रवाह सातशीलत्व, आरम्भ, समारम्भ एवं परिग्रह आदि शिथिलाचार में आनखशिखनिमग्न अपने तथाकथित श्रमणवेशधारी धर्मगुरुओं से मुख मोड़ लोंकाशाह द्वारा अनावृत प्रकटित आध्यात्मिक एवं विशुद्ध प्रागमिक पालोक की अोर उमड़ पड़ा । बही बटों में अंकित अपने पीढ़ी प्रपीढ़ियों के भक्तों की अपने प्रति बढ़ती हुई प्रगाढ़ अनास्था के परिणामस्वरूप अपनी सुख सुविधा की पूरक प्राय के स्रोतों के अवरुद्ध अथवा मन्द हो जाने पर उस काल में धर्मगुरुओं की भी अंततोगत्वा आंखें खुलीं। अवशावस्था में अनेक गच्छनायकों को परिग्रह का मोह त्यागने के लिये बाध्य होना पड़ा । सवा सवा मन सोने की अपने परिग्रह में संजोयो हुई मूर्तियों को अन्धकूपों में डाल कर और महार्घ्य मुक्ताफलों आदि विपुल परिग्रह का परित्याग कर कतिपय आचार्यों ने क्रियोद्वार किये। किन्तु उनके द्वारा किये गये क्रियोद्धार सर्वांगपूर्ण क्रियोद्धार का स्वरूप धारण न कर पाने के कारण अधूरे ही
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वही, पृष्ठ ४८३
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