Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 804
________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकशाह [ तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स वरिवंदण माणरण पूयणाए, जाइमरण मोयणाए दुक्खपडिग्घाय हेउं से सयमेव वणस्सइसत्थं समारंभई ग्रण्णेहिंवा वणस्सइसत्थं समारंभावेइ अण्णे वा वणस्सई सत्थं समारंभमाणे समजा, तं से हियाए, तं से अबोहीए एस खलु गंथे, एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु गरए"" । ( आचारांग सूत्र . १, उ. ५ ) । यदि पृथ्वी अप, तेजस्, वायु और वनस्पति काय के जीवों की हिंसा मोक्ष प्राप्ति में लवलेश मात्र भी किसी व्रती अथवा प्रव्रती के लिए सहायक होती तो संसार के अनन्त दारुण-दुःखों से संत्रस्त संसारी प्राणियों के दुःखों से द्रवित हो उन पर दया कर उन्हें मुक्ति का मार्ग बताने के लिए धर्मतीर्थ की स्थापना करते समय स्पष्ट शब्दों में अपवाद के रूप में फरमा देते कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए पांच स्थावर काय के जीवों की हिंसा की जा सकती है— उसमें कोई पाप नहीं कोई दोष नहीं । किन्तु " सव्व जग - जीव रक्खरण-दयट्ठयाए भगवया पावयणं सुकहियं" प्रश्न व्याकरण सूत्र द्वितीय भाग, प्रथम संवर द्वार के इस परम पावन वचन के अनुसार मुक्ति प्रदायी धर्म तीर्थ की स्थापना करते समय इस प्रकार की कोई बात न कह कर स्पष्ट शब्दों में यही फरमाया कि पृथ्वी काय आदि पांच स्थावर मात्र के एकेन्द्रिय जीवों की किसी भी प्रयोजन के लिए यहां तक कि मोक्ष की प्राप्ति तक के लिए भी हिंसा न की जाय क्योंकि जीव हिंसा अनन्त काल तक जन्म, जरा, मृत्यु, अधिव्याधि आदि दुस्सा दारुरण दुःखों से श्रोत-प्रोत संसार में भटकाने वाली है । ७८५ पार्श्वचन्द्रसूरि ने तो लोकाशाह से दो डग प्रागे चढ़ कर आचारांग सूत्र के अध्ययन १ उद्देशक ५ के उपरिलिखित पाठ के उल्लेख के पश्चात् स्पष्ट शब्दों में लिखा है " सूत्र मतिइं उत्सर्गे नई व्यवहारि नथी दीसती । " अर्थात् सूत्र की मूल भावना में उत्सर्ग एवं अपवाद की कोई बात दृष्टिगोचर नहीं होती । इस प्रकार लोंकाशाह ने आगमों में प्रतिपादित जिन शाश्वत सत्य तथ्यों पर प्रकाश डाला है उन्हीं श्रागमिक तथ्यों को श्री पार्श्वचन्द्रसूरि ने भी पाटण श्री संघ, पाटण में विराजमान सभी गच्छों के प्राचार्यों एवं तत्कालीन जैन जगत के समक्ष रखा । पार्श्वचन्द्रसूरि ने तो लोकाशाह से अनेक डग आगे बढ़कर तत्कालीन श्रमरणों के जीवन में घर की हुई ऐसी बुराइयों को खुले पत्र में चतुर्विध संघ के समक्ष रखा है जो बुराइयां साधु के पांच महाव्रतों में से प्रथम अहिंसा, महाव्रत, चतुर्थ नव बाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत और पंचम अपरिग्रह महाव्रत इन तीनों महाव्रतों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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