Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 801
________________ ७८२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ रहे। पार्श्वचन्द्रसूरि ने तत्कालीन श्रमण समूह के श्रमणाचार में व्यापक रूप से रूढ़ बुराइयों का अपने क्रियोद्धार काल वि० सं० १५६४ से लेकर जीवन पर्यन्त वि० सं० १६१२ तक साहित्य सृजन और उपदेशों के माध्यम से भी डटकर विरोध किया। पार्श्वचन्द्रसूरि द्वारा किये गये क्रियोद्धार के १८ वर्ष पश्चात् तपागच्छ के . नायक श्री आनन्द विमलसूरि ने वि० सं० १५८२ में क्रियोद्धार किया। उन्होंने १५८३ में अपने गच्छ के श्रमण श्रमणीवर्ग के श्रमणाचार को निर्दोष एवं सुदृढ़ बनाये रखने के सदुद्देश्य से ३५ बोलों की घोषणा भी की किन्तु पार्श्वचन्द्रसूरि की भांति चतुर्विध संघ में रूढ हुई विकृतियों के विरुद्ध कोई सार्थक आवाज नहीं उठाई । उनका और उनके क्रियोद्धार का प्रमुख लक्ष्य रहा लोंकाशाह द्वारा प्रारम्भ की गई धर्मक्रान्ति के बढ़ते हुए प्रभाव व प्रवाह को नष्ट करना । श्री आनन्द विमलसूरि और उनके सहयोगी अन्यान्य गच्छों के प्राचार्यों के लोंकाशाह विरोधी सामूहिक सशक्त अभियान और धुंप्रांधार लिखित एवं दूरगामी शाम-दाम-दण्ड-भेद नीति परक मौखिक प्रचार-प्रसार के परिणामस्वरूप अन्ततोगत्वा लोंकागच्छ में आन्तरिक विस्फोट हुए। लोंकागच्छ की प्रबल वेग से बढ़ती हुई सर्वहारा शक्ति क्षीण हुई। कालान्तर में लोंकागच्छ के मनीषी प्राचार्यों ने उस धर्मक्रान्ति के. वेग को तीव्र गति प्रदान करने के प्रबल प्रयास भी किये, उस क्रान्ति के मन्द बने प्रवाह में गति भी आई किन्तु लोकाशाह की आकांक्षा के अनुरूप वह क्रान्ति जैन धर्म संघ में व्याप्त एवं रूढ़ हुई विकृतियों का, बुराइयों का समूलोन्मूलन करने में पूर्णतः सफल नहीं हो सकी। यदि लोंकाशाह द्वारा प्रारम्भ की गई एकमात्र आगमों पर आधारित धर्म क्रान्ति के विरुद्ध छल प्रपन्च पूर्ण मिथ्या प्रचार के सुनियोजित, सुगठित एवं सामूहिक कुचक्र न चलाये जाते तो वह क्रान्ति आश्चर्यकारी शत-प्रतिशत रूप से अवश्यमेव सफल होती और भ० महावीर के धर्म संघ में द्रव्य परम्पराओं द्वारा बलात् हठात् प्रविष्ठ की गई विकृतियों में से अधिकांश बड़ी-बड़ी विकृतियों के नष्ट हो जाने के उपरान्त भी जो अनेक विकार शेष रह गये थे, अवशिष्ट रह गये थे, उनका भी नामोनिशां तक आज दृष्टिगोचर नहीं होता। अब सबसे बड़ा तथ्य यहाँ यह प्रकट होता है कि लोंकाशाह ने न तो कोई नया मत ही चलाया और न कोई नई बात ही कही। उन्होंने तो केवल सर्वज्ञ भाषित आगमों के मूल पाठ प्रस्तुत करते हुए अतिविनम्र शब्दों में यही कहा कि क्षीर नीर विवेकपूर्ण निष्पक्ष दृष्टि से भगवान महावीर के इन वचनों पर डाह्या बन कर चतुराई पूर्वक विचार करो। उन्होंने तो केवल विचार करने और जो उचित लगे वैसा करने का परामर्श दिया। अपनी नहीं केवल सर्वज्ञ वीतराग जगद्धितंकर तीर्थंकर की वाणी पर विचार करने के लिये जन-जन को निवेदन किया। उस वीत राग वारणी को भी मानने-मनवाने का लोकाशाह ने कहीं लेशमात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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