Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 798
________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ७७६ किन्तु पार्श्वचन्द्रसूरि के उपर्युक्त पत्र के इस उल्लेख से "पर्वादि दिवसेषु गुरूणां पुरतः कुंकुमेन गुहलिकाकरणं, उपरिद्रव्य मोचनं, स्त्रिभिः स्वहस्तैतंदुलैगुरूणा न्यूछन करणं तंदुलोच्छालनं स्पर्शश्च'" स्पष्ट है कि स्त्रियां आचार्यों एवं साधुओं के चरणों का स्पर्श करती थीं। पार्श्वचन्द्रसूरि के उपर्यु द्धत पत्रांश से स्पष्टतः प्रकट होता है कि उस समय के प्रायः सभी गच्छों के गच्छाधिपतियों एवं श्रमणों में घोर शिथिलाचार, जिसे शास्त्रों में प्रतिपादित श्रमणाचार को दृष्टिगत रखते हुए अनाचार की संज्ञा प्रदान की जा सकती है-व्याप्त था। उस समय का श्रमण वर्ग अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन तीनों महाव्रतों की अवहेलना के साथ-साथ जिनाज्ञा का, शास्त्रीय निर्देशों का अमर्यादित रूप से उल्लंघन कर डाभ से कच्चे जल के आलोडन पुष्पों के विकिरण, फलों के स्पर्श ढोकन, स्त्रियों से संघट्ट संस्पर्शन करवाने तथा चन्दनबाला-तप आदि अशास्त्रीय, असाधुजनोचित विधिविधानों के बहाने से विपुल सम्पत्ति, अपरिमित परिग्रह बटोरने में संलग्न था। उस समय के श्रमणों में व्याप्त इस प्रकार के प्रागम विरुद्ध शिथिलाचार अथवा हीनाचार से खिन्न क्षुब्ध एवं हताश हो कतिपय आगमज्ञ आत्मार्थी एवं वयोवृद्ध विद्वान साधुओं तक ने दीक्षार्थी विरक्तात्माओं को यह कहना प्रारम्भ कर दिया था कि आचारांग आदि सूत्रों में जो साधु आचार लिखा है, वह आज के साधुओं में देखा नहीं जाता, अतः तुम तो श्रावक के वेश में संवरी होकर रहो। वि० सं० १५०८ में लोंकाशाह द्वारा किये गये धर्मक्रान्ति के उद्घोष से अनेक आत्मार्थी विद्वान, वयोवृद्ध साधुओं के अन्तर्चक्षु उद्घाटित हुए। उसके १२ वर्ष पश्चात् की, वि० सं० १५२० की इस संबंध में एक बड़ी ही रोचक घटना है, उसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे सत्य के जिज्ञासुओं को यह भली-भांति विदित हो जाये कि किन विकट परिस्थितियों में संघरथ को शिथिलाचार के दल-दल से निकालने के दृढ़ संकल्प के साथ धर्मोद्धारक लोकाशाह को धर्मक्रान्ति का उद्घोष करना पड़ा, एक प्रकार से अपने आप में सर्वांग पूर्ण क्रान्ति का शंखनाद पूरना पड़ा। वि० सं० १५२० के आस-पास की वह घटना इस प्रकार है : "दीक्षा लेने की धुन में कडुवा अनेक साधुओं का परिचय करता हुआ अहमदाबाद पहुंचा। वहां रूपपुरा में आगमिक पंन्यास हरिकीर्ति शुद्ध प्ररूपक संवेग पक्ष के साधु थे । वे अपनी शक्ति के अनुसार क्रिया-कलाप करते थे। गुणी साधुओं को वन्दन करते थे। परन्तु आप किसी से वन्दन नहीं करवाते, कहते-मैं वन्दन योग्य नहीं हूं, मुझसे शास्त्रोक्त साधु का आचार नहीं पलता। हरिकीर्ति रूपपुरे की एक शून्य शाला में रहते थे। कडुवा ने उनका व्यवहार देखा और उसको पसन्द आया। उसने हरिकीर्तिजी के सामने अपना परिचय देते हुए कहा- "मेरी इच्छा १. सप्तपदी शास्त्र, प्रस्तावना, पृष्ठ १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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