Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 796
________________ सामान्य श्रुतघर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ७७७ प्राचार्यश्री पार्श्वचन्दसूरि द्वारा अपने पत्र में आज से लगभग ४६८ वर्ष पूर्व जैन धर्म संघ में रूढ़ बने विकारों एवं धर्म की मूल आत्मा, मूल भावना से कोसों दूर ले जाने वाले विविध विधि-विधानों के विवरणों को पढ़कर प्रत्येक मुमुक्षु पाठक के नेत्र युगल आश्चर्याभिभूत हो खुले के खुले रह जायेंगे और हठात् उसे दुःख भरी दीर्घ निच्छ्वास छोड़ने के लिये विवश होना पड़ेगा। प्रत्येक सच्चा सत्यान्वेषी चिन्तक तत्कालीन चतुर्विध संघ के दैनिक जीवन में घूले मिले इन आगम विरुद्ध विधि-विधानों एवं धार्मिक कहे जाने वाले कार्यकलापों के विवरणों को पढ़कर यही सोचेगा कि उस समय के श्रमणों ने और विभिन्न गच्छों के गच्छाधिपति प्राचार्यों ने आगम प्रतिपादित श्रमणाचार को अनन्त अलोकाकाश में उड़ा कर लोक रंजन के माध्यम से अपरिमित परिग्रह बटोरने में ही श्रमण धर्म की इतिश्री समझ ली थी। __ सर्वज्ञ-सर्वदर्शी श्रमण भ० महावीर द्वारा प्ररूपित, परम पावन आगमों में प्रतिपादित एवं शार्दू लोपम पराक्रमशाली शूरवीरों द्वारा परिपालित दुश्चर श्रमण धर्म की तथा चतुर्विध संघ की इस प्रकार की दयनीय दशा से द्रवित हो धर्मोद्धारक लोकाशाह को, इन सब विकारों के समूलोन्मूलन के लक्ष्य से धर्मक्रान्ति का शंखनाद पूरना पड़ा । लोकाशाह द्वारा पुनः २ उद्घोषित अभिनव धर्मक्रान्ति के गगन-भेदी, उद्घोष से बड़े-बड़े आचार्यों, मठाधीशों, श्रीपूज्यों अथवा गच्छाधिपतियों की मोहतन्द्रा खुली, उनींदी अांखें शनैःशनैः उन्मीलित होने लगी। किन्तु प्राचार्यों को अवकाश कहां था शिथिलाचार के गहन दल-दल में धंसे फंसे संघरथ को बाहर निकालने का। वि० सं० १५०८ से लोंकाशाह ने संघरथ को शिथिलाचार के गहरे कीचड़ से निकालने का दृढ़ लक्ष्य लिये क्रान्ति का उद्घोष किया और संयोग की बात है कि उसी वर्ष (वि० सं० १५०८ में) तपागच्छ के ५२ वें गच्छनायक रत्नशेखरसूरि ने अपने उत्तराधिकारी लक्ष्मीसागरजी को सूरिपद प्रदान किया। लोकाशाह द्वारा धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किये जाने के अनन्तर लगभग ६ वर्ष तक रत्नशेखरसूरि गच्छनायक पद पर रहे और वि० सं० १५१७ में स्वर्गस्थ हुए । रत्नशेखरसूरि ने किसी प्रकार का क्रियोद्धार नहीं किया। उनके पश्चात् लक्ष्मीसागरसूरि तपागच्छ के ५३वें गच्छनायक पद पर आसीन हुए। उन्होंने भी क्रियोद्धार की ओर ध्यान नहीं दिया। लक्ष्मीसागरसूरि के स्वर्गारोहणानन्तर तपागच्छ के ५४वें गच्छाधिपति श्री सुमति साधुसूरि हुए। उन्होंने भी अपने प्राचार्य काल में शिथिलाचार में निमग्न अपने साधु वर्ग को शिथिलाचार से ऊपर उठाने का कोई प्रयास नहीं किया । तपागच्छ के ५४वें गच्छनायक सुमति साधुसूरि के पश्चात् ५५वें गच्छनायक श्री हेमविमलसूरि हुए। उन्होंने लोंकामत के ऋषि दाना, ऋषि श्री पति, ऋषि गणपति प्रमुख कतिपय साधुओं को लुंका गच्छ से खींच कर तपागच्छ के श्रमणाचार की दीक्षा तो दी, किन्तु शिथिलाचार में निमग्न अपने साधुवर्ग को विशुद्ध श्रमण धर्म की परिपालना के लिये कटिबद्ध करने का कोई प्रभावकारी प्रयास किया हो, ऐसा तपागच्छ की पट्टावलियों से प्रतीत नहीं होता। तपागच्छ पट्टावली के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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