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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
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एक ही प्रमुख कारण निष्कर्ष के रूप में उभर कर हमारे समक्ष आता है । अलबेरूनी, प्रार. सी. मजूमदार आदि अनेकानेक लब्धप्रतिष्ठ इतिहासविदों द्वारा प्रस्तुत किये गये अन्यान्य सभी कारणों का जनक यही एकमात्र मूल कारण है कि
नरशार्दूल के समान सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिये अनिवार्यरूपेण आवश्यक “सह नाववतु, सह नौ भुनक्त , सहनौ वीर्यं करवावहै, तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै"--अर्थात्, हम मिलकर साथ-साथ उठे-बैठे, साथ-साथ समान रूप से खायें-पीवें, भोगोपभोगों का उपभोग करें, हम मिलकर एक साथ पौरुषपूर्ण परिश्रम करें, हमारा सर्वांगीण अध्ययन तेजस्वितापूर्ण अर्थात् उत्कृष्ट कोटि का हो और हम परस्पर एक दूसरे से कभी द्वेष न करें, इस मूल मन्त्र को हमने, हम भारतीयों ने शनैः शनैः भुलाना प्रारम्भ कर दिया। प्रगतिपथ पर अग्रसर करने वाले इस मूलमन्त्र के विस्मरण के परिणामस्वरूप भारतीयों ने समय-समय पर अनेक बार झटके सहे, अनेक बार अधःपतन की ओर उन्मुख हुए । झटकों से सम्भल कर जब इस मूल मन्त्र का स्मरण किया, अपने जीवन में इसे ढालना प्रारम्भ किया तो पुनः प्रगतिपथ पर आरूढ़ हुए। इस प्रकार की अपकर्षोत्कर्षात्मक प्रक्रिया के चलतेचलते विक्रम की दशवीं शताब्दी के आविर्भाव के आसपास प्रगति के इस मूलमन्त्र को भारतीय अपनी कथनी और करणी-दोनों में ही भूल बैठे।
"सह नाववतु"-हम एक ही दृढ़ संकल्प के साथ एक जुट हो प्रशस्त सुपथ पर साथ-साथ चलें—इस सकल कार्य-सिद्धिप्रदायी महामन्त्र को विस्मृत कर दिये जाने का भयंकर दुष्परिणाम यह निकला कि सब अपनी-अपनी इच्छानुसार केवल स्वयं के ही स्वार्थों की पूर्ति के उद्देश्य से एक दूसरे का साथ छोड़, एक दूसरे से विपरीत पथ पर बढ़ने लगे । कोई पूर्व दिशा की ओर द्रुतगति से दौड़ने लगा तो दूसरा पश्चिम की ओर, तीसरा दक्षिण और चौथा उत्तर दिशा की ओर । इससे सम्पूर्ण भारत की मति दिशाविहीन हो गई। संघशक्ति का चिन्ह तक अवशिष्ट न रहा।
__“सह नौ भुनक्त" हमें हमारे सामूहिक-सम्मिलित प्रयास-परिश्रम से जो भी भोगोपभोग की सामग्री उपलब्ध हो, उसका समान रूप से बंटवारा कर हम सभी समान रूप से साथ-साथ उपभोग करें—इस आत्मीयता से ओत-प्रोत भाई-चारे के महामन्त्र को भुला बैठने के कारण इने-गिने लोगों को विशिष्ट प्रकार की भोग्य सामग्री उपलब्ध कराने के प्रयास से वर्णविद्वेष एवं पारस्परिक कलह की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होती गई। वर्णविशेष, वर्गविशेष अथवा जातिविशेष ने भोगोपभोग की अधिकाधिक सामग्री अपने लिये ही सुरक्षित अथवा निर्धारित रखने की अभिलाषा से सत्ता हथियाने के प्रयास प्रारम्भ किये । सत्ता हथियाने के लिये पारस्परिक कलह और लड़ाई-झगड़ों का दौर "दिन दूना-रात चौगुना" बढ़ने लगा।
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