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प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि
विक्रम की बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में हुए प्रभावक ग्रन्थकार एवं लोकप्रिय जैनाचार्यों में कलिकाल सर्वज्ञ के विरुद से विभूषित आचार्य श्री हेमचन्द्र सर्वाधिक लोकप्रिय, राजमान्य, सर्वोत्तम ग्रन्थकार एवं जिन शासन के महान् प्रभावक, आचार्य हुए हैं । अपने त्याग, तप एवं प्रगल्भ प्रकाण्ड पाण्डित्य से प्रभावित अपने समय के दो प्रतापी राजाधिराजाओं को समयोचित सत्परामर्ष एवं लोक कल्याणकारी मार्गदर्शन देकर स्व तथा जन-जन के इहलोक और परलोक उभय लोकों को सुधारने-संवारने वाले, समष्टि के लिये अभ्युदयकारी नैतिक, सामाजिक, चारित्रिक एवं धार्मिक धरातल को अभ्युन्नत करने वाले सत्कार्यों की प्रेरणा दे जन-जन के जीवन में सच्ची मानवीयता के संस्कार ढालकर हेमचन्द्रसूरि ने जिनशासन की चिरस्थायिनी महती प्रभावना एवं उल्लेखनीय सेवा की।
प्राचार्य श्री हेमचन्द्र के जन्म स्थान, जन्म दिवस, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में राजगच्छीय प्राचार्य श्री प्रभाचन्द्रसूरि ने, अपनी विक्रम सं० १३३४ की कृति 'प्रभावक चरित्र' में और अंचलगच्छीय आचार्य श्री मेरुतुङ्गसूरि ने विक्रम सम्वत् १३६१ की कृति 'प्रबन्ध चिन्तामणि' में पर्याप्त प्रकाश डाला है ।
'प्रभावक चरित्र' के उल्लेखानुसार समृद्ध गुर्जर प्रदेश में चालुक्यराज कर्ण के शासनकाल में, धुन्धुका (धन्धक) नामक सुन्दर नगर में चाचिग (चाचोशाह) नामक मोढ जाति का श्रेष्ठि रहता था। श्रेष्ठि चाचिग की धर्मपत्नी का नाम पाहिनी था । श्रेष्ठिपत्नी पाहिनी बड़ी ही धर्मनिष्ठा, पतिपरायणा एवं रूप-लावण्य-गुरण-सम्पन्ना रमणीरत्न थी।
एक समय रात्रि के अन्तिम प्रहर में सुषुप्तावस्था में श्रेष्टिपत्नी पाहिनी ने स्वप्न में देखा कि एक दैदीप्यमान दिव्य चिन्तामणि रत्न उसे प्राप्त हुआ है और वह उस तेजोपुज अनमोल चिन्तामणि रत्न को अपने आराध्य धर्मगुरु के कर-कमलों में समर्पित कर रही है । स्वप्न दर्शन के तत्काल पश्चात् पाहिनी की निद्रा भग हुई तो उसने अनुभव किया कि उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा है। उसके अन्तर्हद में अनिर्वचनीय आनन्द का अथाह सागर उत्ताल तरंगों से तरंगित एवं उद्वेलित हो रहा है। हर्षविभोर पाहिनी ने शय्या का परित्याग कर लोचन युगल को निमीलित करते हुए पंच परमेष्ठि नमस्कार मन्त्र का ध्यान प्रारम्भ किया । उसकी आंखें बन्द थीं पर स्वप्न में दिखे चिन्तामणि रत्न की अलौकिक नयनाभिराम सम्मोहक छवि उसके लोचन युगल में, मन में, मस्तिष्क में बस चुकी थी अतः उसे चारों ओर अलौकिक आलोक ही आलोक प्रसृत हुआ प्रतीत हो रहा था। घन घटा के आगमन
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