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| जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
कालान्तर में एकमात्र जिनवाणी अर्थात् प्रागमों को ही प्रामाणिक मानने के स्थान पर नियुक्तियों, वृत्तियों, भाष्यों और चुरिणयों को भी आगम तुल्य ही परम प्रामाणिक मानने की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप इस महान् क्रान्तिकारी खरतरगच्छ में भी शनैः शनैः चैत्यवासियों द्वारा धर्मसंघ में आविष्कृत-प्रविष्ट एवं जैन समाज के बहुसंख्यक विशाल जन-समूह में शताब्दियों से रूढ़ की गई विकृतियां पनपने पल्लवित एवं पुष्पित होने लगीं। शनैः शनैः प्रारम्भ में भट्टारक और कालान्तर में श्री पूज्य के विरुद से विभूषित खरतरगच्छ के आचार्यों ने भी छत्र, चामर, छड़ी आदि राजाधिराजाओं के राजचिह्नों को धारण करना, विपुल परिग्रह रखना और पालकियों में बैठकर आवागमन करना प्रारम्भ कर दिया।
जिस महान् क्रान्तिकारी परम्परा के प्रवर्तक वर्द्धमानसूरि ने घोषणा की थी कि वे गणधरों द्वारा ग्रथित और चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा निर्गुढ़ आगमों के अतिरिक्त और किसी भी धर्मग्रन्थ को प्रामाणिक नहीं मानते, कालान्तर में उन्हीं के पट्टधरों ने चैत्यवासी परम्परा द्वारा स्वनिर्मित निगमों के आधार पर प्रचलित की गई परिपाटियों पर चलना प्रारम्भ कर दिया। न केवल खरतरगच्छ ही अपितु सुविहित कही जाने वाली अनेक परम्परात्रों की पट्टावलियां इस प्रकार के उदाहरणों से भरी पड़ी हैं। नमूने के रूप में खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में वरिणत प्राचार्य जिनचन्द्रसूरि की जीवनचर्या से सम्बन्धित गद्य के कुछ सारांश यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं ।' यथा :
विक्रम सम्वत् १३७५, माघ शुक्ला बारस के दिन नागपुर (नागौर) में महोत्सव करवाया। उसमें कतिपय साधु-साध्वियों की दीक्षाएं हुईं। तदनन्तर श्रावक समुदाय के साथ श्री जिनचन्द्रसूरि (द्वितीय) ने फलौदी जाकर श्री पार्श्वनाथ की तीसरी बार यात्रा की। इस अवसर पर भगवान् पार्श्वनाथ के भांडागार में तीस हजार जैथल की आय हुई। तत्पश्चात् श्री पूज्यजी संघ के साथ पुनः नागौर लौटे । विक्रम सम्वत् १३७५ की वैषाख कृष्णा आठम के दिन ठक्कर अचल सुश्रावक ने सुल्तान कुतुबुद्दीन से आज्ञा निकलवा कर अनेक नगरों के विशाल जन-समुदाय के साथ हस्तिनापुर मथुरा, आदि महातीर्थों की यात्रा के लिये संघ निकलवाया। श्री पूज्य जिनचन्द्रसूरि (द्वितीय) अपने जयवल्लभगरिए आदि आठ साधु और जयद्धि महत्तरा आदि अनेक साध्वियों एवं विशाल संघ के साथ
१. खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली पृष्ठ ६५ व ६६ ।
.........."ततः विक्रम सम्वत् १३७५ माघ शुक्ल द्वादश्यां .........."कार्यमाणेषु महाप्रेक्षणीयेपु, नृत्यमानेषु युवति जनेषु दीयमानेषु तालारासेपु......... श्री पूज्य........." श्री ब्रतग्रहणमालारोपणादि नन्दिमहामहोत्सवश्चक्रे ... ८७ । ततः सम्वत् १३७५.........."
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