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सामान्य श्रृंतधर काल खण्ड २ ]
अंचलगच्छ
बना कर विधिपक्ष के अनुयायियों की संख्या में भी उल्लेखनीय अभिवृद्धि की। जयसिंहसूरि द्वारा की गई जिनशासन-सेवा का विशिष्ट उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ में यथा स्थान किया जायगा।
जयसिंहसूरि के पश्चात् उनके विशिष्ट एवं विधिपक्ष गच्छ के तृतीय पट्टधर धर्मघोषसूरि, उनके पश्चात् विधिपक्ष के चौथे पट्टधर महेन्द्रसिंहसूरि और उनके पश्चात् विधिपक्षगच्छ के पांचवें पट्टधर प्राचार्यसिंह प्रभ भी महान् प्रभावक आचार्य हुए।
विधिपक्ष के पंचम पट्टधर सिंहप्रभसूरि ने सिंह के समान पराक्रम प्रकट करते हुए घर-द्वार-परिवार एवं सांसारिक प्रपंचों एवं मोह-ममत्व का परित्याग कर श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की थी। वि० सं० १३०६ में उन्हें विधिसंघ के पांचवें पट्टधर प्राचार्य के रूप में प्राचार्य पद पर अधिष्ठित किया गया।
सिंहप्रभसूरि अपने समय के लब्धप्रतिष्ठ महान् वादी थे। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थों में विजय प्राप्त कर विधि मार्ग (अंचलगच्छ) की प्रतिष्ठा में उल्लेखनीय अभिवृद्धि की। शत्रुजय पर्वत पर उपलब्ध वि० सं०.१६८३ के एक शिलालेख में उकित :
"प्रासंस्ततः सकलसूरिशिरोऽवतंसाः,
सिंहप्रभाभिधसुसाधु-गुणप्रसिद्धाः ।।" ।
इस पद्य में सिंहप्रभसूरि को उनके समकालीन सभी प्राचार्यों में मुकुट के समान बताया गया है। इनके प्राचार्य पद पर आसीन होते ही 'वल्लभी शाखा" पूर्णतः विधिपक्ष में विलीन हो गई और उसके परिणामस्वरूप विधिपक्ष की सर्वतोमुखी प्रगति एवं ख्याति में अभूतपूर्व अभिवृद्धि हुई।
'मेरुतुगीया लघुशतपदी' तथा 'मेरुतुगीया पट्टावली' में इस प्रकार का भी उल्लेख पाया जाता है कि इतने बड़े विद्वान, महावादी, प्रभावक एवं प्रतापशाली होते हुए भी सिंहप्रभसूरि शनैः शनैः शिथिलाचार की ओर उन्मुख होते-होते अन्ततोगत्वा एक प्रकार से चैत्यवासियों के समान नियतनिवासी बन गये। मेरुतुगीया पट्टावली का वह उल्लेख इस प्रकार है :
"क्रमेण १३०६ सम्वत्सरे स्तम्भतीर्थे संघेन सूरिपदार्पणपूर्वकं श्री महेन्द्र सूरिपट्टे स्थापिताः । ततस्ते यौवनाधिकारादिमदावलिप्ताः संयमगुणं विस्मृत्य चैत्यवासं विधाय परिग्रहमूच्छिताऽभवन् ।".
यद्यपि भावसागरसूरि तक 'श्री वीरवंशपट्टावली" में श्री सिंहप्रभसूरि के चैत्यवासी हो जाने अथवा घोर शिथिलाचार में लिप्त हो जाने का कोई उल्लेख
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