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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह
.. "जिन भवनों का निर्माण, जिन बिम्बों की प्रतिष्ठाएं, जिनेश्वरों की प्रतिमाओं को पूजा और जिनेश्वरों के मन्दिरों से मंडित तीर्थ-स्थलों की यात्राएं कर तथा स्वधर्मी वात्सल्य के प्रभावनाकारी कार्य कर अनन्तानन्त जीव निर्वाण को प्राप्त हो गये किन्तु हर्षकीत्ति नामक पंन्यास को ऐसी कुमति उपजी कि उसने धुन्धुकिया नामक नगर में चातुर्मासावास कर उस धुन्धुकं नगर की कीत्ति को धूलि में मिला दिया। वि० सं० १५३० में उसने धुन्धुकिया नगर में चातुर्मास किया। उसको वहां उसके पक्षधर तीन चार प्रमुख व्यक्ति मिल गये जो उसकी प्रत्येक बात का समर्थन करने में तत्पर रहते थे। वह हर्षकीत्ति न तो गुरु को मानता है और न गुरु के आदेश को ही । यदि कोई उसे सच्ची बात कहता है तो वह उस पर क्रुद्ध हो जाता है । इस कारण अधिकांश लोग उसी के पक्ष का समर्थन करते हैं । यद्यपि वह किसी भी गच्छ की मर्यादा का पालन नहीं करता तथापि उसने वहां एक महान् धर्माचार्य जैसा अपना प्रभाव जमा लिया। इस कारण वह अपनी इच्छानुसार उपदेश देने लगा और उसे किसी से किसी प्रकार की शंका न रही। वह जिनपूजा का डटकर विरोध करने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं रखता। न तो वह तीर्थ यात्रा को मानता है और न तीर्थ को ही। उसका स्वधर्मी वात्सल्य में, दान में, कोई विश्वास नहीं है। रात्रि भोजन का विरोध नहीं करता। रात्रि में ध्यान करने का अथवा सामायिक करने का कोई उपदेश नहीं देता। इस प्रकार उसने लुकामत की सभी मान्यताओं की पूरी तरह से इस नगर में प्रतिष्ठापना कर दी है। उसने समस्त जनमत को अपनी ओर आकर्षित कर लिया है। उसने बहुत बड़ी संख्या में लोगों की प्रास्थानों को धंधोल डाला है--हिला डाला है---झकझोर डाला है । इस प्रकार उसने अपने चारों ओर अपने अनुयायियों का परिवार बढ़ा लिया है । धंधुका में बैठे-बैठे ही उसने बाहर के लोगों के मानस में भी लुकामत की मान्यताओं को घोल दिया है। चातुर्मास समाप्त करने के पश्चात् वह पाटन नगर में पहुंचा। वहां भी उसने अपना माया जाल फैलाया। वहां के अनेक संघ प्रमुखों को अपना अनुयायी बना लिया। बड़े आश्चर्य की बात है कि वह जिनेश्वर भगवान् की पूजा का और दान का डट कर विरोध करता है, फिर भी उसे मधुकरी में आहार और पानी यथेप्सित मिल जाता है। वन्दन करने वाले को वह धर्म लाभ नहीं कहता । प्रत्याख्यान में भी उसकी कोई श्रद्धा नहीं है। वह भाव यतियों को नहीं मानता। केवल पूर्णरूपेण लुकामति दृष्टिगोचर होता है।"
"प्रबल पुण्योदय से ही भव्य प्राणी को श्रमण धर्म की प्राप्ति होती है। पर यह हर्षकीत्ति इस मर्म को नहीं जानता । साधुओं में भी चारित्र का व श्रमणाचार का न्यूनाधिक तारतम्य होना स्वाभाविक ही है, किन्तु यह तो प्रत्येक चारित्री की निन्दा करता है और अपने पाप का घड़ा भरता है। साधुओं में अनेक कठोर चारित्र का पालन करने वाले, तो अनेक उनसे कुछ न्यून भी होते हैं । पर उन्हें यथा-योग्य समझकर नमन करना प्रत्येक भव्य का कर्तव्य है । किन्तु इस प्रकार की
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