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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
कोईक कोतक तुम्हें सांभलो, अणियलपूर ने मांहि । मेहतो लखमसी इहां बसे, सुद्ध धरम से धीर रे ।।३५।। त० एहवा वचन श्रावक तणां, सुरण ने साह जीवराज। वलतो श्रावक ने कहे, ए पुरुष मुझ ने देखाड़ ॥३६॥ त० श्रावक लोंकागच्छ नो, लेई ने संघ ने साथ। लखमसी मेहता पासे गया, सीझ्या वंछित काज ।।३७।। त० संघपति जीवराज ने, दया धरम सुणाय । एहवा वचन सांभली, हर्षित हुवो अपार ।।३८।। त० समकित तां तेणे आदर्यो, संजम लेहवा नो भाव । इहां जो दीक्षा हूं लऊं, तो मोहे ठुउगे लोग ।।३।। संघ जातरा सर्व करी, जाये आपण गेह । आज्ञा मांगी कुटुम्ब नी, लेसूसंजम योग ॥४०॥ त० संघजातरा करी घणी, पाव्या सूरत मांहि । हरिपुरो त्यां जाणिये, साह जीवराज ना त्यां मोहोल ।।४१।। त० शाह जीवराज पाव्या तिहां, दी सर्व संघ ने सीख । स्त्री पुत्र ने एम कहे, लेस्यूसंजम भार ॥४२।। त० लाख बत्तीस सोवन तज्यो, अस्त्री सात सहि सुविशेष । पंच पुत्र ते जाणिये, प्रत्यक्ष देवकुमार ॥४३।। त० ए इत्यादिक सर्व ऋद्ध ने, तजतां न लागी वार । आज्ञा मांगी सर्व नी, आव्या पाटण मांहि ।।४४।। त० जीवराज सेठ रूपसी, मलिया एकठ त्यांह । रूपसी साह ना बहनोई हुवे, साह जीवराज धार ।।४५।। त० धर्म चर्चा त्यां बहू करे, मुझ ने संजम नो भाव । प्राज्ञा माँगी सर्व नी, हूं आव्यो तम पास ।।४६।। त० एम कहे शाह रूपसी, हूं संजम सूअब मन लाग । जणिये संतालीस जाणिये, साह भामो ने भारमल्ल ॥४७।। त० तेर बखाण, बंचिया, साह लखमसी जाण । सूत्र उपदेश तिहां सुणी, बूझ्या जण पस्तालीस ।।४८।। त० ढालदेसी त्रीजी भणी, मुनि रायचन्द सुजाण । दया धर्म कैसे ही चालसी, तेह ना करू रे बखाण ।।४६।। त०
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