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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
. तिणरी याद-लुकाजी दीष्या लीनी तिणरो परिपार घणो बधियो। तिण रो लुका नाम थपीयो छै और लुकाजी गुजरात, मारवार और दिल्ली तक पधारिया । और दिल्ली मांहें पातशाह आगल चरचा थपी । श्रीपूजजी तूं लूकाजी रे चरचा हुई करी ने घणो मीथ्यात हटावी ने घणां श्रावकों ने प्रतिबोध दीधो। एनी साख सूरत ना सेठजी कल्याणजी भंसाली ना भण्डारमा पट्टावली संस्कृत मां छ । तेमां लूंकाजी नी दीष्या नी हकीकत छ । तथा ज्ञानसागर जती नी जोड़ नो ग्रंथ नाटक तेमां पण लूंकाजीए दीष्या लीधी नो लष्यूं छै । दया धर्म नो उदीयोत घणो थयो । देस-देस में गांव नगर में दया धर्म नी परूपणां घणी बधी। घणां ना मोह मीथ्यात काढ़िया। घणां ने दया धर्म मां प्राणिया। ऐसी जैन मारग नी महिमा देषी ने पनरेसेह बत्तीसे नी साल मां साधुग्रां नी महिमा आगले जतीयो नो जोर बहु कम परीयो । तीवारे जतियां विचार करियो के आपणो मत चालसी नहीं ।............।" १
२. ............संघ १५२ सा माटा पाटण मां अाव्या, वर्षारथे नील फुल उगी, सम्वत् १४२८ (१५२८ होना चाहिये) मां पाटण मां देरा देख स्थान जोई रीह्या त ए दीवसनी गमे नहीं तरा लुंको लह्यो सिद्धान्त ३२ लखी बेची और पूर्णा करे छे ते पासे १५२ संधवी जैने ३२ सूत्र सांभल्या, तरे संधवी १५२ ने पुछु के हे लका लह्या ! भगवन्त ने १ लाख ५६ हजार श्रावक थया, तेमां मोटा १२ व्रतधारी १० ते एकावतारी, तेनु सूत्र रचुं तेणे केणे, संघ न काढो, देरु न कराव्यु, प्रतिमा न पूजी । तेनो पाठ उपासकदशांग मां केम नाव्यो । ते प्रतिमा तो जुठी माटे, अमारा पैसा संघ काढा ना खराब कर्या, गाडांना पैड़ा हेठे अनेक जीव मरा माटे, आजीवक मत हो धीगस्तु । संसार ने, द्रव्य, छया, छोकरा............पड़तां मुकी ने १५२ साधु थया । पुस्तक लका लया कने थी नै नके (लुके) दीक्षा लीधी। १५३ ठाणुं वीहार करी वन जई रीह्या । अने पनवणाए महापनवणा ऐ, महापनवणा मां पाठ मां कई छे जे भगवंत ने इन्द्रे वीनती कीधी। अंत शमे हे प्रभु भस्मग्रह बेशे छे, जो बे घड़ी आउखो बधारो तो तमारी द्रष्टी ने जोगे दो हजार नी दो घड़ी मा उतरी जासे, प्रभु के, ए अर्थ न समर्थ, तीर्थंकर बल न फोरवे । तरा, प्रभु पाछो जीव-दया मूल धर्म कयांथी दीपसे । तरे प्रभुए कह्य-जे जीवा रूपादी जीव भवीस्सई, त्यांथी जीवदया मूल धर्म दीपसे । पछे लूँके ३ दिन अणसरण करी चवा । मध्ये रात्रे देव आकाशे प्रावी १५२ साधु ने सूरी मन्त्र दीधो। ते साधुए सवारे कागले उतार्यो । कह्य-जे हूं लुंको ऋषि देवलोके गयो छू। आ लोको गच्छ सत्य छ।
हवे त्याथी लोंकागच्छ नी पेढ़ी सं० १४२८ (?) थी लखाणी
१.
मरुधर पट्टावली, पट्टावली प्रबन्ध संग्रह, पृष्ठ २५५-५६, प्रकाशक--जैन इतिहास निर्माण समिति, जयपुर । सन् १९६८
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