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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ बोलों, ३४ बोलों एवं परम्परा विषयक ५४ प्रश्नों आदि की रचना कर चतुर्विध संघ के समक्ष रखा। आग्रह से नितान्त निविमुक्त विनम्र भाषा में उन्होंने चतुर्विध संघ के प्रत्येक सम्माननीय सदस्य से प्रत्येक बोल, प्रत्येक प्रश्न के अन्त में यही निवेदन किया-"डाह्या होइ विचारि जोज्यो जी।"
सूर्य के प्रकाश के समान इस प्रकार की सुस्पष्ट स्थिति में भी "तातस्य कूपोऽयमिति ब्रुवारण, क्षारं जलं कापुरुषाः पिवन्ति ।" इस नीतिसूक्ति को चरितार्थ करते हुए "लोकाशाह अने धर्मचर्चा" नाम्नी लध्वी कृति के रचनाकार अपनी परम्परा के पूर्वाभिनिवेशग्रस्त पूर्वपुरुषों से भी दश डग आगे बढ़ कर कहते हैं, लिखते हैं :-"बीजं लोकाशाहे धर्मनो उद्धार मुद्दल ज कर्यो न होतो परन्तु खरू कहीए तो अधर्मनुं ज प्रतिपादन कयु हतुं । कारण के जैनशास्त्रों-सूत्रों ने लोंकाशाह मानता न होता, सामायिक वगेरे धार्मिक क्रियानो तथा दान नो लोकाशाह निषेध करता हता। एटले लोकाशाह नो मत ए धर्म नो उद्धार न होतो पण धर्मनुं पतन हतु, अथवा अधर्मनो प्रचार ज हतो।" - आगमों के प्रति अगाध आस्था, प्रगाढ़ श्रद्धा से अोतप्रोत लोकाशाह का प्रत्येक बोल, प्रत्येक प्रश्न का एक-एक अक्षर इस तथ्य को सुस्पष्ट रूप से प्रकट कर रहा है कि लोंकाशाह आगमों के अनन्य उपासक थे, वे केवल आगमों को ही सर्वोपरि और परम प्रामाणिक मानते थे। आगमों की पूर्वधरकालीन प्रतिष्ठा को पुनः प्रतिष्ठापित एवं अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये लोंकाशाह ने जीवन भर संघर्ष किया। आगमविरोधी विधानों, विधिविधानों, मान्यताओं एवं परस्पर विरोधी बातों से अोतप्रोत नियुक्तियों, चूणियों वृत्तियों एवं भाष्यों को आगमों के समकक्ष मान्यता प्रदान कर आगमों की अवहेलना करने वाले द्रव्य परम्पराओं के कर्णधारों का लोकाशाह ने जीवन भर डट कर विरोध किया। वि० सं० १०८० के आस-पास वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने सर्वज्ञभाषित आगमों के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा से ओतप्रोत जिस दिव्य घोष को गुंजरित कर अनागमिक चैत्यवासी परम्परा के गढ़ों को ढहा दिया था, ठीक उसी प्रकार-"सर्वज्ञ भाषित-गणधरों अथवा चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा ग्रथित आगम ही जैनमात्र के लिये सर्वोपरि एवं परम प्रामाणिक हैं, न कि नियुक्ति, चूणि, वृत्ति एवं भाष्य सहित पंचांगी । क्योंकि भाष्य आदि में आगम विरुद्ध अनेक मान्यताएं एवं बातें भी उल्लिखित हैं।" इस दिव्य घोष को जैनजगत् में गुंजरित कर जैनधर्म के सर्वज्ञप्रणीत स्वरूप में अनागमिक आडम्बरपूर्ण कुरूढ़ियां, विकृतियां प्रविष्ट कर देने वाली द्रव्य परम्पराओं के खेमों में, गढ़ों में लोकाशाह ने भूकम्प सा उत्पन्न कर उन्हें जड़ों से झकझोर दिया।
. एकमात्र आगमों के आधार पर, आगमिक उद्धरणों के साथ जैनधर्म के शास्त्रोक्त स्वरूप को अन्धकार से उजाले में लाकर उसका प्रचार-प्रसार करने . वाले महापुरुष को अधर्म का प्रतिपादक बताने वाला व्यक्ति अथवा लेखक कितना
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