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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ मतीनो कर्यो ग्रन्थ छ।" इससे अनुमान किया जाता है कि लोंकाशाह ने प्रागमों में प्रतिपादित धर्म के विशुद्ध मूल स्वरूप को जन-जन के समक्ष रखते समय विपुल साहित्य का लोकभाषा में निर्माण किया था । द्रव्य परम्पराओं के शिथिलाचारग्रस्त कर्णधारों ने जिन अगणित अशास्त्रीय मान्यताओं, परिपाटियों, विधि-विधानों, धार्मिक कर्मकाण्डों, अथवा दैनिक परमावश्यक धार्मिक क्रियाओं को धर्म के नाम पर चतुर्विध संघ में प्रचलित कर धर्म के और श्रमणाचार के स्वरूप को विकृत किया था और जिसे लोंकाशाह ने अनागमिक, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थेश्वर श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित-प्रदर्शित अध्यात्मप्रधान जैनधर्म और श्रमणाचार से नितान्त विपरीत सिद्ध करने हेतु आगमों के उद्धरणों के साथ अपनी कृतियों प्रश्नों एवं बोलों के रूप में जिस विपुल साहित्य का लोकभाषा में सृजन किया था, उसीमें से लोंकाशाह द्वारा उठाये गये, जन-जन के समक्ष रखे गये लगभग ५७४ मुद्दों अथवा तथ्यों का कडुअामती शास्त्रज्ञ विद्वान् शाह रामा कर्णवेधी ने अपनी उक्त कृति “लुम्पक वृद्ध हुंडी” में विस्तारपूर्वक उत्तर देने का प्रयास किया है ।
लोकाशाह की मान्यताओं का विरोध करने के लक्ष्य से कडुआमती विद्वान् रामाकर्णवेधी द्वारा इस प्रकार के विशाल ग्रन्थ की रचना से और तत्कालीन गच्छों की पट्टावलियों में उपलब्ध "हलाबोल ढुंढक थयो" -अर्थात् जिधर देखो उधर ही चारों ओर लोकाशाह के ही अनुयायी दृष्टिगोचर होने लग गये थे-प्रभृति उल्लेखों से यही प्रकट होता है कि लोंकाशाह के उपदेशों में कोई अतीव अद्भुत चमत्कारी प्रभाव था एवं उनकी युक्तियां लोकमत को शास्त्रों में प्रतिपादित धर्म के विशुद्ध स्वरूप एवं निरतिचार श्रमण धर्म की ओर आकर्षित करने में अतीव सक्षम थीं। लोकाशाह ने सर्वज्ञ प्ररूपित शुद्ध जैन सिद्धान्तों पर आधारित अपने उपदेशों में जीवहिंसा को जैनसंघ से, जैन धर्मावलम्बियों के धार्मिक कार्यकलापों अथवा विधिविधानों से सदा-सर्वदा के लिये पूर्णरूपेण समाप्त कर देने के लक्ष्य से आचारांग आदि सर्वज्ञ भाषित एवं गणधरों द्वारा गुम्फित आगमों के उद्धरणों को जन-जन के समक्ष विशद व्याख्या सहित प्रस्तुत करते हुए साहस के साथ स्पष्ट शब्दों में यह सिद्ध कर दिया था कि जैनधर्म में षड्जीवनिकाय के किसी एक भी प्राणी की हिंसा के लिये किंचित्मात्र भी अवकाश किसी भी दशा में नहीं रखा गया है । प्राणिमात्र की जीवन रक्षा को, जीवदया को सर्पोपरि स्थान दिया गया है। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग प्रभु श्रमण भ० महावीर ने तीर्थप्रवर्तन काल में सर्वप्रथम यही उपदेश दिया था कि अपने जीवन की रक्षा की बात तो दूर, मोक्ष की प्राप्ति के लिये भी, जन्म, जरा, आधि, व्याधि एवं मृत्यु से छुटकारा प्राप्त करने के लिये भी षड्जीवनिकाय के किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं की जाय । जो ऐसा करता है, वह अनन्तकाल तक भवभ्रमण करता हुआ दुस्सह्य दारुण दुःखों का भागी बनता है । चतुर्विध धर्म तीर्थ की स्थापना करते समय प्रभु महावीर द्वारा संसार के समक्ष प्रकट किये गये इस अवितथ शाश्वत सत्य की पुष्टि के लिये
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