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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
लोकाशाह द्वारा अभिसूत्रित क्रान्ति के दिग्दिगन्त व्यापी प्रचार-प्रसार को रोकने और उस धर्म क्रान्ति के परिणामस्वरूप जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्रदर्शित एवं आगमों में प्रतिपादित विशुद्ध मूल धर्मपथ पर अग्रसर होने वाले नवोदित धर्म संघ को छिन्न-भिन्न करने तथा उस संगठन में आन्तरिक विस्फोट करने के लक्ष्य से उस समय की प्रायः सभी द्रव्य परम्पराओं ने सुसंगठित एवं एकमत हो साम, दाम, दण्ड और भेद-इन चारों प्रकार की नीतियों का सामूहिक प्रयोग करने में किसी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी। मान-सम्मान के प्रलोभन तक देकर लोंकाशाह के अनुयायियों को डिगाने के द्रव्य परम्पराओं ने अथक-अनवरत प्रयास किये, इस तथ्य की पुष्टि विभिन्न पट्टावलियों के निम्नलिखित उल्लेखों से होती है :
____ "श्री राजविजयसूरि ने सं० १५८२ में क्रियोद्धार करने वाले लघुशालिक आचार्य श्री आनन्दविमलसूरि के पास योगोद्वहन करके श्री राजविजयसूरि नाम रक्खा, बाद में तीनों प्राचार्यों ने अपने-अपने परिवार के साथ भिन्न-भिन्न तीनों देशों में विहार किया। श्री आनन्दविमलसूरिजी ने सर्वत्र फिर कर श्रावकों को स्थिर किया है, कई गांवों में प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की, नये जिनबिम्ब भरवाये, जैन शासन की महिमा बढ़ायी, सं० १५६६ तक बहुत से लुंका के अनुयायी गृहस्थ तथा वेषधारक उपदेशक मूर्ति मानने वाले हुए,...........।"१
"तथाऽहमदाबाद नगरे लुङ्कामताधिपति श्री मेघजी नामा स्वकीयमताधि पत्यं "दुर्गतिहेतु" रिति मत्वा रज इव परित्यज्य पञ्चविंशति २५ मुनिभिः सह सकल राजाधिराज पातिसाहि श्री अकब्बर राजाज्ञापूर्वकं तदीयाऽऽतोद्यबादवादिना महामह पुरस्सरं प्रव्रज्य यदीय पादाम्भोजसेवापरायणो जातः । एतादृशं च न कस्याप्याचार्यस्य श्रुतपूर्वम् ।"२
अर्थात्-अहमदाबाद नगर में लुंकामत के प्राचार्य मेघजी ने अपने मत को दुर्गति का कारण मानकर धूलि की भांति उसका परित्याग कर मुगल सम्राट अकबर की आज्ञा से प्रदान किये गये बेण्डबाजा वाद्ययन्त्रों के घोष के बीच अपने अनुयायी अथवा शिष्य २५ मुनियों के साथ शुद्ध संवेगी दीक्षा अंगीकार कर श्री हीरविजयसूरि के चरणों का उपासक बन गया। इस प्रकार की महती प्रभावकारी घटना पूर्व के किसी भी आचार्य के सम्बन्ध में कभी कर्णगोचर नहीं हुई।
१. राजविजयसूरि गच्छ की पट्टावली, श्री पट्टावली पराग संग्रह-पं० श्री कल्याण विजयजी
महाराज, पृष्ठ.१८६ २. पट्टावली समुच्चयः, पृ. ७२
पन्यास श्री कल्याण विजयजी द्वारा सम्पादित "श्री तपागच्छ पट्टावली" में पृष्ठ सं० २३५ पर "लोंकामतना मेघजी ऋषिए बीस साधुओंनी साथे तपागच्छनी अाम्नाय वि० सं० १६२८ मां स्वीकारी।" इस प्रकार का भी उल्लेख है ।
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