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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोकाशाह
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उपरिचित एक पट्टावली में प्रयुक्त- "हलाबोल ढुंढक थयो" इन शब्दों से यही प्रकट होता है कि लोकाशाह द्वारा निर्मित बोलों, पूछे गये प्रश्नों के समान ही उनके उपदेशों में भी कोई अचिन्त्य चमत्कार था। लोकाशाह के लिए लुंपक (लुटेरा-चोर), लुंगा (लुच्चा-दुराचारी), ढुंढक (भग्नावशिष्ट टूटे-फूटे शून्य गृहोंढूंढों में रहने वाला) आदि आक्रोशपूर्ण हीन शब्दों के प्रयोग तत्कालीन पट्टावलियों एवं रचनाओं में जो दृष्टिगोचर होते हैं, उनसे स्पष्टतः यही आभास होता है कि लोकाशाह के बोलों, प्रश्नों और उपदेशों के चमत्कारकारी प्रभाव से जो नामधारी मठाधीश, आचार्य अथवा श्रमण शिथिलाचार में प्राकण्ठ निमग्न हो अपनी सुखसुविधा के लिये अहर्निश परिग्रह बटोरने में, बहिवटों के माध्यम से धन संचय में ही संलग्न थे, उनकी आय और प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा, इससे किंकर्तव्यविमूढ़ हो धर्म के नाम पर धन बटोरने वाले उन धर्म के धोरियों ने "खिसियानी बिल्ली खम्भा नोंचे" वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए इस प्रकार के हीन, अोछे और हल्के-फुल्के असाधुजनोचित शब्दों का प्रयोग लोंकाशाह के विरुद्ध किया । क्योंकि आगम में उल्लिखित तीर्थंकरों के उक्त अवितथ वचन को अन्यथा सिद्ध करने का उन मठाधीशों के पास कोई उपाय ही नहीं था।
जन-जन के मन, मस्तिष्क एवं हृदयपटल पर आगम प्रतिपादित धर्म के विशुद्ध स्वरूप और निरतिचार श्रमणधर्म की मर्यादाओं को लोकाशाह ने अति स्वल्प समय में ही किस प्रकार अंकित कर दिया, उनके किस प्रकार के युक्ति संगत आगमपरिपुष्ट उपदेशों से उनके द्वारा प्रारम्भ की गई धर्मक्रान्ति सफलता के कीर्तिमान को स्पर्श करने लगी, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि लोंकाशाह के जिन उपदेशों से जिन तत्कालीन धर्म-धोरियों की आय के स्रोत अवरुद्ध हो गये, जिनकी पूजा-प्रतिष्ठा मान-सम्मान एवं सुख-सुविधाओं पर धराशायी कर देने वाला घातक आघात पहुंचा, उन लोगों ने लोंकाशाह के उपदेशों को, आगमों पर आधारित तथा जनसाधारण के सहज ही समझ में आ जाने वाली लोकभाषा में निबद्ध कृतियों को और यहां तक कि उनके जीवनवृत्त से सम्बन्धित साहित्य तक को नष्ट भ्रष्ट करने में किसी भी प्रकार की कोर-कसर नहीं रखी।
इस सबके उपरान्त भी गहन खोज-शोध के परिणामस्वरूप शनैः शनैः प्रकाश में आने वाली-“लुकाए पूछेला १३ प्रश्नों" "लोंकाशाह ना कहिया अने सद्दहिया ५८ बोल" आदि कृतियों से और ई० सन् १९८४ में अहमदाबाद से प्राप्त, शाह रामा कर्णवेधी द्वारा वि० सं० १५६२ में रचित ३२६ पत्रों (६५६ फुलस्केप साइज पृष्ठों) की "लुम्पक वृद्ध हुण्डी" नामक वृहदाकार ग्रन्थ से लोकाशाह के शास्त्रसम्मत उपदेशों, शास्त्रों के आधार पर उनके द्वारा निर्मित साहित्य एवं उनकी मान्यताओं के सम्बन्ध में अभिनव प्रकाश पड़ता है। "लुम्पक वृद्ध हुण्डी" के अन्त में, नीचे की ओर एक वाक्य उल्लिखित है-"बोल ५७४ नो जबाप उत्तर कडुआ
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