Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 778
________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह [ ७५६ घाली नाम थापज्यो। पछे गोरियो वीर थाप्या तेह ने सिन्दूरिया कू तेल नैवेद्य छत्र चढावयो। पाटे बसें तें पधारियो। सूरमन्त्र गण्यो। दिन-दिन प्रतें चतुर्विध संघ बधसे । इहवं कही त्रिजि निकायें गया। श्री पूज्यजी ए विहार कर्यो । भव्य जीव ने प्रतिबोध देइ जिहां-जिहां लुका तेहने उत्थापी जिन बैंब थापना करी। पूजा प्रभावना दिन-दिन प्रतें उन्नत थइ । लंका ना मनना सन्देह भाजी, तो वली कुमति बोल्या देवता नो पूजवानी स्थित छ। पुण्य नी के पाप नी। ते विचारी जोजो। संसार मांहि ते सर्व स्थिति छ। साधु ने पांच महावत पालवा नी स्थितिज छ तो पुण्य न उपाजीइं-मोक्ष न पामीइं। कुमति बोल्या जिन प्रतिमा नो पूजनार केहि गति जनइ ? तीर्थकर........... लोकाशाह के विरुद्ध विषेला भ्रान्तिपूर्ण प्रचार नगीनदास गिरधरलाल शेठ ने वि० सं० २०२१ में प्रकाशित "लोकाशाह अने धर्मचर्चा" नामक अपनी एक लघु कृति में महान् धर्मोद्धारक लोकाशाह को अधर्म का प्ररूपक और उनकी सर्वज्ञप्रणीत आगमों का अक्षरशः शत-प्रतिशत अनुसरण करने वाली शास्त्रीय मान्यताओं को नितान्त धर्मविरुद्ध बताते हुए अपनी निम्नलिखित मिथ्या एवं निराधार मान्यताओं को, वस्तुतः वास्तविक तथ्यों की अनदेखी करते हुए, अपनी निम्नलिखित पूर्वाभिनिवेशपूर्ण मिथ्या एवं नितान्त निराधार मान्यताओं को सिद्ध करने का असफल प्रयास किया है : "१. लोंकाशाहना मृत्यु सुधी लखमसी, भाणजी अने लींबड़ी ना थोड़ाक श्रावको-एटलाज तेमना अनुयायी हता। (पृष्ठ ४३)" इन पंक्तियों को लिखते समय श्री नगीनदास गिरधरलाल शेठ ने इस बात का लवलेशमात्र भी विचार नहीं किया कि इन पंक्तियों को लिखकर वे अपने पूर्वाचार्यों, अपनी परम्परा के विद्वान् लेखकों और अपनी परम्परा की प्रायः सभी पट्टावलियों को नितान्त असत्य अथवा अक्षरशः झूठा सिद्ध करने का दुस्साहस कर रहे हैं। तपागच्छ पट्टावली आदि मूर्तिपूजक गच्छों की प्रायः सभी पट्टावलियां पुकार-पुकार कर कह रही हैं-"तदानीं च लुंकाख्याल्लेखकात् वि० अष्टाधिक पंच दशशत १५०८ वर्षे जिनप्रतिमोत्थापनपरं लुंकामतं प्रवृत्तं ।" तपागच्छ के ५२वें से ५६वें पट्टधर रत्नशेखरसूरि, लक्ष्मीसागरसूरि, सुमतिसाधुसूरि हेमविमलसूरि और आनन्दविमलसूरि के संघनायकत्व काल में लुकागच्छ उत्तरोत्तर फलता-फूलता एवं फैलता ही गया और उस समय के प्रायः सभी गच्छों के नायक एवं साधु परिग्रह बटोरने एवं शिथिलाचार में प्रलिप्त रहे। "आगरा मध्ये श्रावक ३६०० से घर लंका कीधा, इग्यारसें देहरा, जिनप्रतिमा भुंयमध्ये भण्डारी छ, हलाबोल ढुंढक थयो।" "पादन मध्ये पंच गच्छ प्राचार्य, ते समें श्रावकें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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