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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोकाशाह
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लोकाशाह के उपदेशों के परिणामस्वरूप जैनधर्म में शताब्दियों से प्रविष्ट हुई 'विकृतियों, शिथिलाचार, आगमविरुद्ध बाह्याडम्बरपूर्ण तथाकथित कर्मकाण्डों-विधि विधानों के विरुद्ध उमड़े हुए लोकप्रवाह से अपनी परम्पराओं, अपने गच्छों की रक्षा के लिए उस समय के प्रायः सभी चैत्यवासी गच्छों के कर्णधारों को परिग्रह के परित्याग के साथ-साथ संगठित रूप से अपनी पूरी सामूहिक शक्ति लगानी पड़ी।
इन सब तथ्यों के तत्कालीन जैन वांग्मय में विशद रूप से विद्यमान होते हुए भी यदि कोई साम्प्रदायिक व्यामोहाभिभूत व्यक्ति यह कहे कि लोंकाशाह के स्वर्गगमन के समय तक उनके अनुयायियों की संख्या बहुत थोड़ी अथवा अंगुलियों पर गिनी जा सके जितनी थी और वह भी केवल लीमड़ी नगर में ही थी, तो इस प्रकार की निराधार बे-सिर-पैर की बात कहने वाले हठाग्रहग्रस्त ज्ञानलवदुर्विदग्ध व्यक्ति को तो स्वयं ब्रह्मा तक अथक प्रयास के उपरान्त भी वास्तविक तथ्य समझाने में सक्षम नहीं होंगे।
अपनी इसी छोटी सी कृति में श्री नगीनदास गिरधरलाल शेठ ने लोंकाशाह के ५८ बोलों को लोकाशाह के स्थान पर धर्मसिंहजी की कृति होने का अनुमान प्रकट करते हुए लिखा है :
"(२) लुंका ना ५८ बोल नी कृति लोंकाशाहनी नथी, ते ऊपरथी बताव्यु पण ते कृति मुनि श्री धर्मसिंहजीनी ज होई शके तेना कारणो नीचे प्रमाणे छ ।”
५८ बोल लोंकाशाह की ही कृति है, इस तथ्य की पुष्टि में श्री दलसुखभाई मालवणियां ने जो ग्यारह प्रमाण अथवा युक्तियां दी हैं, उनके उत्तर में शेठ श्री नगीनदास ने १० युक्तियां देने के पश्चात् लिखा है :
___ "मुनि श्री धर्मसिंहजी, लवजी ऋषि तथा धर्मदासजी ना अनुयायियो पहेलां ढुंढिया कहेवातां हता। पछी स्थानकवासी कहेवाया। हालना स्थानकवासीओ आ ५८ बोल प्रमाणेनी ज मान्यता धरावे छे ते पण पूरवार करे छे के आ ५८ बोल नी कृति मुनि श्री धर्मसिंहजीनी ज होइ शके।"
- लेखनकलानिष्णात विद्वान् श्री नगीनदास गिरधरलाल शेठ ने ऐतिहासिक तथ्यों से नितान्त विपरीत प्राधारहीन उल्लेख कर न केवल "पल्लवग्राही पाण्डित्यम्" की कहावत को ही सत्य सिद्ध किया है अपितु “सौंठ का एक गांठिया पा कर चूहा अपने आपको बड़ा पंसारी समझ बैठा"- इस लोकोक्ति को भी अक्षरशः चरितार्थ कर दिया है । उन्होंने तत्कालीन साहित्य का सरसरी निगाह से विहंगमावलोकन तो किया किन्तु अवगाहन, अन्तःनिरीक्षण, आलोडन-विलोडन नहीं किया। आचार्यश्री धर्मसिंहजी से लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व के एतद्विषयक साहित्य को सम्माननीय शेठ ने सम्भवतः पढ़ा ही नहीं अथवा पढ़कर भी सम्भवतः
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