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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
लोंकाशाह
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धर्मपथ से भ्रष्ट होकर हिंसापूर्ण धर्म प्रचलित किया। सच्चा धर्म शास्त्रों में प्रतिपादित है किन्तु हमारे सब शास्त्र शिथिलाचारियों के अधिकार में हैं। मुझे वे आगम पोशालधारी आचार्य प्रानन्दविमलसूरि ने लिखने के लिए दिये हैं। बिना द्रव्य व्यय किये उन शास्त्रों की आवश्यकतानुसार प्रतियां नहीं लिखाई जा सकतीं। मेरे द्वारा लिखी गई प्रतियां प्रानन्दविमलसूरि ले लेते हैं। उन शास्त्रों की एक से अधिक प्रतियां लिखवाये बिना दयाधर्म को प्रकाश में नहीं लाया जा सकता, उसका लोगों में प्रचार-प्रसार नहीं किया जा सकता । उन शास्त्रों की प्रतियां लिखवाने के धार्मिक उद्देश्य से ही मैं मापके पास आया हूं।""
तदनन्तर मेहता लखमसी ने रूपसी को दशवकालिक सूत्र में प्रतिपादित अहिंसामूलक विशुद्ध धर्म, श्रमणों के निर्दोष प्राहार-पानीय मधुकरी के रूप में ग्रहण करने एवं शुद्ध श्रमणाचार के सम्बन्ध में सार रूप में समझाया। लखमसी द्वारा प्रस्तुत किये गये अहिंसामूलक धर्म एवं श्रमणाचार विषयक आगमिक विवेचन को सुनकर रूपसी को वास्तविक धर्म के साथ बोधिबीज सम्यक्त व की प्राप्ति हुई । उन्होंने लखमसी से दृढ़ सम्यक्त व धारण किया। अपनी आन्तरिक अभिलाषा को रूपसी के समक्ष अभिव्यक्त करते हुए लखमसी ने कहा-“यदि मेरे पास द्रव्य हो तो वह सब कुछ व्यय कर सर्वप्रथम इन आगमों का लेखन करवाऊं।" .
लखमसी की बात सुनकर नगरश्रेष्ठि रूपसी ने तत्काल विपुल द्रव्य मेहता लखमसी को अर्पित करते हुए कहा--"यह द्रव्य लीजिये और इस उत्तम कार्य को सुचारुरूपेण यथाशीघ्र सम्पन्न कीजिये।"
१.
जोतां जोतां शाह रूपसी, अरणहिलपुर ने मांयं । नगरसेठ तिहां बसे, शाह रूपसी सुजाण ॥३॥ लखमसी जाई तेहने मल्या, बोल्या देखी सेठ । किहां बसो छो तुम्हें इहां, कौन तुम्हारो धर्म ने ठाम ॥४॥ कुण तुम्हारी साख छ, कुण तुम्हारी जात । वलता लखमसी इम बोलिया, बीसा श्रीमाली अमारी साख ॥५॥ जिणधरमी गच्छ खडतरा, महता प्रमारी जात । मारुदेश ए मैं रहऊ, शहर खरन्टियावास ॥६॥ कुण कारज माविया इहां, कोय बेपार ने काम । वलता लखमसी एम बीनवे, प्रमारे धर्म नो काम ।।७।। दयाधर्म जिन भाखियो, तो श्री जिन वर्द्धमान । ते धर्म सर्व उथापने, हिंसा धर्म चलाय ॥६॥
-एक पातरिया गच्छ, पोतिया बन्धगच्छ पट्टावली, हस्तलिखित ।
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