Book Title: Jain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Author(s): Hastimal Maharaj
Publisher: Jain Itihas Samiti Jaipur

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Page 755
________________ ७३६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास -- भाग ४ सकती । इसलिये आप सब सहर्ष मुझे दीक्षित होने की अनुमति प्रदान कर दीजिये ।" इस प्रकार अपने परिवार की अनुज्ञा प्राप्त कर श्रेष्ठिवर जीवराजजी ने अपनी सात पत्नियों और देवकुमारों के समान परम सुन्दर आज्ञाकारी पांच पुत्रों के मोह को क्षण भर में ही एक और झटक कर पाटरण की ओर प्रयाण किया । अहिलपुर पत्तन में वे शाह रूपसी के पास पहुंचे। जीवराजजी और रूपसी में परस्पर साले बहनोई का सम्बन्ध था । जीवराजजी बहनोई थे और शाह रूपसी उनके साले । जीवराजजी ने अपने साले रूपसी से कहा- “ मैं आपकी बहिन और आपके भानजों आदि अपने सब परिवार की अनुज्ञा प्राप्त कर श्रमरण धर्म में दीक्षित होने के उद्देश्य से यहां आया हूं।" अपने बहनोई शाह जीवराजजी के दृढ़ संकल्प को सुनकर शाह रूपसी ने उनसे कहा – “मैंने भी आपके साथ ही दीक्षित होने का निश्चय कर लिया है ।" I मेहता लखमसी के व्याख्यान का समय होने वाला है, यह विचार कर शाह जीवराजजी और शाह रूपसी तत्काल व्याख्यान स्थल पर पहुंचें। मेहता लखमसी का व्याख्यान सुनने के लिये व्याख्यान स्थल पर विशाल जनसमूह एकत्रित था । शाह जीवराजजी और शाह रूपसी भी मेहता लखमसी के क्रान्तिकारी उपदेशों को सुनने के लिये व्याख्यानस्थल पर यथास्थान बैठ गये । मेहता लखमसी ने सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रों के मूल सूत्रों की विशद व्याख्या करते हुए व्याख्यान प्रारम्भ किया । "जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक, अनिष्ट संयोग, इष्टवियोग आदि अपार दारुण दुःखों से श्रोत-प्रोत संसार सागर में डूबते हुए प्राणियों को केवल सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् द्वारा प्ररूपित "अहिंसा, संयम, तप स्वरूप दया धर्म ही भवसागर से पार उतारने वाला है" -- इस आध्यात्मिक विषय पर मेहता लखमसी के मर्मस्पर्शी व्याख्यान को सुनकर (शाह जीवराजजी ) शाह रूपसी, शाह भामा, शाह भारमल आदि ४५ मुमुक्षुत्रों ने वैराग्य के प्रगाढ़ रंग में रंगित हो पंच महाव्रत स्वरूप श्रमण धर्म की दीक्षा अंगीकार की । इन ४५ मुमुक्षु श्रात्मानों ने विक्रम संवत् १५३१ की वैशाख शुक्ला एकादशी गुरुवार के दिन द्वितीय प्रहर में अनुराधा नक्षत्र का योग होने पर अष्टम शुभ मुहूर्त में श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की । इस प्रकार पांच समिति, तीन गुप्ति, नव बाड़ युक्त ब्रह्मचर्य, दशविध यतिधर्म, पांच संवर और ३६ गुणों से सुशोभित पांच महाव्रतधारी ४५ मुनि श्रठारह पापों, शल्य, मिथ्यात्व और पांच प्रकार के प्रास्रवों से विनिर्मुक्त हो विभिन्न क्षेत्रों के अनेक ग्रामों और नगरों में अप्रतिहत विहार क्रम से धर्म का उद्योत एवं धर्मतीर्थ का अभ्युदयोत्कर्ष करते हुए विचरण करने लगे । रूपसी को लोकागच्छ के प्रथम पट्टधर प्राचार्य के पद पर अधिष्ठित किया गया। मुनिश्री भारमल और भुजराज ( भोजराज वा भामाजी) को स्थविर पद पर अधिष्ठित किया गया । भारमलजी के दो शिष्य हुए केशवजी और धनराजजी । लोकागच्छ के पहले पट्टधर श्री रूपसीजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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