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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
“तदा लुंपकाख्यलेखकात् विक्रमत: पन्द्रह सौ माठ (१५०८) वर्षे लुंकामतं प्रवृत्तम्, तन्मत - वेषधरास्तु १५३३ वर्षे जाताः । "
अर्थात् लुंपक नामक लेखक से वि० सं० १५०८ में लुंकामत प्रचलित हुआ । उस मत के वेषधारी वि० सं० १५३३ में हुए ।
४. उपाध्याय श्री रविवर्द्धन गरिण द्वारा रचित 'पट्टावली सारोद्धार' में भी एतद्विषयक निम्नलिखित उल्लेख है :
“ तदानीं लुंकाख्यातो लेखकात् सम्वत् १५०८ वर्षे श्री जिन प्रतिमोत्थापनपरं लुंका मतं प्रवृत्तम्, तद् वेषघरस्तु सम्वत् १५३८ वर्षे जातः, तत्प्रथमो वेष धारी ऋषि भागाख्योऽभूदिति । '
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- पट्टावली समुच्चय पृष्ठ १५७ ।
अर्थात् रत्नशेखरसूरि के प्राचार्य काल में उनके स्वर्गस्थ होने से नव वर्ष पूर्व वि० सं० १५०८ में लुंका नामक लेखक से जिन प्रतिमा की उत्थापना करने वाला लुंकामत प्रचलित हुआ । उस मत में वि० सं० १५३८ में पहला वेषधारी ऋषि भारा हुआ ।
५. दी हार्ट ग्राफ जैनिज्म के लेखक के अभिमतानुसार लोंकामत ईसवी सन् १४५२ तदनुसार वि० सं० १५०६ में प्रचलित हुआ ।
६. बडौदा यूनीवर्सिटी में उपलब्ध पुस्तक संख्या २३३२३ में लोंका गच्छ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निम्नलिखित उल्लेख है :
" सम्वत् १५०८ लुंपाक मतोत्पत्तिः लक्कउ इति नाम्नः लेखकात् । सम्वत् १५३३ लुंपाक मते प्रथम भारिणयो नाम वेषधारी जातः । इति लुका।”
अर्थात् वि० सं० १५०८ में लक्कउ नामक लेखक से लुंपाक मत की उत्पत्ति हुई । इस मत में सम्वत् १५३३ में पहला वेषधारी भागियो नामक हुआ ।
७. Master यूनीवर्सिटी में उपलब्ध यति हेमचन्द्र की 'पट्टावली' में वि. सं. १४२८ में लोंकागच्छ की स्थापना का उल्लेख है । इस सम्बन्ध में पूरा विवरण"लोकाशाह के दीक्षित होने अथवा न होने विषयक अभिमत" नामक अधोलिखित शीर्षक के नीचे दिया जा रहा है ।
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