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लोकाशाह
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हवो जारि साह लूंके । ते द्रव्यलिंगिया नी संगत मूकी पोते सिद्धान्त वांचे । घरणां जीवां प्रते सम्यक्त्व पमाडता हुआ । तिरण काले अरहटवाडो सिरोही नो-तेह ना शाह संघ काडी ने यात्रा निकल्या छै । तिहां वाट में माटो हुवो। तेवारे संघ नो पडाव थयो । सिंघवी बात सुरणी के लूंको महतो सिद्धान्त वांचे । ते अपूर्व वारणी छै । इम जारणी घरणां लोकां संघाते सिंघवी सांभलवा आयो । दया धर्म, साधु श्रावक नो धर्म, सांभली ने अत्यन्त हर्ष पायो । मार्ग रुचियो । घरणा दिन जातां जारणी संघ में लिंगधारी हता ते बोल्या - साहजी संघ आगे चलावो । लोक खर्च खाते दुखी थया छै । तिवारे पछे संघवी बोल्यो वाट में गजरी प्रमुख जीव घरणा थया छै । अजयरगाथासे, सो सुस्तावो । जदी गुरु बोल्या साह जी ! स्वर्ग कामे हिंसा गरणीये नहीं । तिवारे संघवी विचार्यो, जेहवा हमें लुंका महता पासे सुरिया तेवा हीज वेषधारी प्ररणाचारी छ काय जीवा नी अनुकम्पा दया रहित दीसे छै । तिवारे यति पाछा गया । पछे ते संघवी ने सिद्धांत सांभलतां वैराग ऊपनो । तिवारे सम्वत् पन्द्रह इकतीसे ( वि० सं० १५३१) वर्षे सिरोही ना अरटवाडा ना वासी साह भारण, जाति पोरवाड अहमदाबाद मध्ये स्वयमेव दीक्षा लीधी । ते पासे सिरोही ना वासी भीदा प्रादि पैंतालीस जणां दीक्षा लीधी । घरणां साधु मिली दया धर्म परूपवा लागा | तिवारे घरणा हलुकरमी जीवां ने दया धर्म रुचवा लागो । घरणां घणी-घणी रिद्धी छोड ने मोक्षार्थे दीक्षा लीघी । घरणां श्रावक थया । घणो जिन मार्ग नो उद्योत कीधो । लोकां लुंका एहवो नाम दीधो ।"
सामान्य श्रुतघर काल खण्ड २ ]
२. उपाध्याय श्री धर्मसागर गरिण द्वारा रचित श्री तपागच्छ पट्टावली सूत्रम् सोपज्ञ वृत्ति समलंकृतम् में लोंकाशाह द्वारा प्रवर्तित किये गये शुद्ध साधु मार्ग के सम्बन्ध में निम्नलिखित उल्लेख है :
" तदानीं च लुंकाख्यालेखकात् विक्रम प्रष्टाधिक पंचदशशत वर्षे ( १५०८ ) जिन प्रतिमोत्थापन - परं लूंकामतं प्रवृत्तम् । तन्मते वेषधरास्तु वि० सं० त्रयत्रिंशदधिक पंचदशशत (१५३३) वर्षे जाताः तत्र प्रथमो वेषधारी भागाख्योऽभूदिति ।। १६ ।।
- पट्टावली समुच्चय, पृष्ठ ६७ ।
अर्थात् बावनवें पट्टधर श्री रत्नशेखरसूरि के प्राचार्यकाल ( वि० सं० १५०२ से १५१७) में लुंका नामक लेखक से वि० सं० १५०८ में जिन प्रतिमा का उत्थापक अथवा लोपक लुकामत प्रचलित हुआ । इस लुंकामत में वेषधारी वि० सं० १५३३ में हुए । लुंकामत में पहला वेषधारी भारगा नामक हुआ ।
३. अज्ञातकर्तृक 'श्री गुरु पट्टवली' में एतद्विषयक निम्नलिखित उल्लेख है :
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