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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास---भाग ४
होने लगा। उक्त प्रकार लोंकाजी की महिमा लोगों के मुख से सुनकर यतियों को द्वेष उत्पन्न होने लगा और लोंकाजी को आगे से शास्त्र देना बन्द कर दिया। जितने शास्त्र लोंकाजी के हाथ लगे उतने का ही उद्धार हुआ और शेष शास्त्र भण्डार में रह गये जो दीमक वगैरह जन्तुओं के भोग बन गये।
उक्त प्रकार लोंकाजी द्वारा ३२ (बत्तीस) शास्त्रों का भण्डार अपने अधीन कर अरिहन्त प्रणीत सत्य शास्त्र का स्वरूप दर्शाने के लिए स्वेच्छा से आये हुए लोगों को सत्यधर्म का उपदेश करने लगे और शंकाशील पुरुषों की शंका का निवारण भी करने लगे। लोंकाजी का सद्बोध लोगों को बड़ा ही वैराग्य उत्पादक हुआ। एक वक्त यतियों के उपदेश से यात्रा को जाते हुए चार संघ अहमदाबाद में एकत्रित हुए। वे लोंकाजी का सद्बोध सुनकर सच्चे वीतराग प्रणीत धर्म के श्रद्धालु बने । उनमें से १५२ पुरुषों को वैराग्य प्राप्त हुआ। वे बोले कि जो आप शास्त्रानुसार दीक्षा धारो तो हम भी आपके शिष्य होने को तैयार हैं । यह सुनकर लोंकाजी परमानन्दी बने और प्रथम मुखपति मुखकर बांध कर पंच परमेष्ठी को वन्दना की
और स्वयं दीक्षा धारणा की। फिर एक सौ बावन (१५२) पुरुषों को दीक्षा दी। लोंकाजी को अपना परमोपकारी जान गच्छ का नाम लोंकागच्छ दिया।
__उन साधुओं के साथ आर्यमण्डल में बहुत समय तक विचरण कर सत्यधर्म का प्रसार किया। फिर आलोचना, निन्दा युक्त १५ दिन के संथारे पूर्वक आत्मोद्धार किया। तत्पश्चात् भागजी नामक सद्गृहस्थ ने ४५ महापुरुषों के साथ मुख पर मुखवस्त्रिका बांधकर दीक्षा धारण की। लोकागच्छ शास्त्रानुसार शुद्धाचार का पालन करते हुए कितनेक काल बाद शिथिलाचारियों की संगति से शिथिलाचारी बन गया।
लोकाशाह के जीवन के कतिपय तथ्यों पर प्रकाश डालने वाले उल्लेख
१. भानुचन्द्र यति द्वारा रचित "दयाधर्म चौपाई-कड़ी संख्या २५" में लोकाशाह के जीवन के कतिपय तथ्यों पर प्रकाश डालने वाले निम्नलिखित पद मननीय हैं :
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