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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
___ "तेणं कालेणं तेणं समएणं कणगपुरं णगरं, सेताउअ उज्जाणे, वीरभद्दो जक्खो।" इति श्री विपाक मध्ये ।
- “सुघोसं णगरं, देवरमणं उज्जाणं, वीरसेणो जक्खो।" इति श्री विपाक मध्ये "तेणं कालेणं तेणं समएणं साएयं (साकेतं) णगरे होत्था, उत्तरकुरु उज्जाणे पासमिन (पार्श्वमृग) जक्खो।" इति श्री विपाक मध्ये ।
एह छप्पनमु बोल । (सारांश-आगमों में स्थान-स्थान पर विभिन्न नगरों के भिन्न-भिन्न यक्षायतनों का उल्लेख है, जिनमें श्रमण भ० महावीर विराजे । इसके विपरीत किसी भी आगम में किसी एक भी जिनमन्दिर का उल्लेख नहीं है। इससे यह शाश्वत सत्य के समान, सूर्य चन्द्र के समान परम प्रामाणिक एवं निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में आर्यधरा में कहीं किसी भी स्थान पर तीर्थंकरों के मन्दिरों का अस्तित्व तक नहीं था। यदि एक भी जिनमन्दिर का भ० महावीर के समय में अस्तित्व होता तो प्रभु वीर उसमें अवश्य विराजमान होते और आगम में यक्षायतनों के समान ही जिनमन्दिरों का भी विस्तारपूर्वक स्पष्टतः स्थान-स्थान पर उल्लेख होता।) ५७. सतावनमु बोल :
हवइ सत्तावनमु बोल लिखीइ छइ । तथा केतला एक इम कहई छई जे"अम्हारइं वृत्ति, टीका, चूरिण, नियुक्ति भाष्य सहू प्रमाण ।" ते डाहु हुई ते विचारी जोज्यो । जे श्रीसिद्धान्तनइं मिलइ, ते प्रमाण । अनइ जे सिद्धान्त विरुद्ध हुइ ते किम प्रमारण थाइ ? वृत्ति टीका मांहि एहवा अधिकार छइं, ते लिखीइ छई जे-“साधु चरित्रीयो चक्रवति नां कटक चूणि करइ।" उत्तराध्ययन नी वृत्ति चूर्णि मध्ये ।
"तथा चारित्रीओ पंचक मांहि काल करइ तु डाभना पूतलां करवां कह्या छइं, ते लिखीइ छइ-"दुन्नि अदिवड्ढखित्ते दम्भमया पूत्तला या कायव्वा । समखित्तंमि अ इक्को, अवड्ढ अभिइ न कायव्वो।" आवश्यकनियुक्ति परिठावणिया समिति मांहिं तथा वृहत्कल्प नी वृत्ति मध्ये परिण पूत्तलां करवां कह्या ।
"तथा देहरामाहि थी कोलीपावडां ना घर, मिथा भमरभमरी ना घर साधु चारित्रीउ आपणा हाथइ परिहार करइ । न करइ तु तेह साधुनइं प्रायश्चित्त आवई।" वृहत्कल्प मध्ये । - "तथा चूणि वृत्ति मध्ये कुसील सेववा साधुनइं कह्या छइं। तथा साधुनइ षासड़ा (जते) पहिरवां तथा पान खावां तथा फल केला आदि देइनइ वृक्ष थी चुंटी खावां बोल्यां छइ । तथा चारित्रीया नइं रात्रि आहार लेवू कहिउं छइ, ते लिखीइ छइ-"इयारिंण कप्पिया भणत्ति, अणाभोग दारगाहा–अरणाभोगेण वा राइभत्तं भुंजेज्जा, गिलाणकारणेण वा, अद्धापड़िसेवणेण वा दुल्लभदव्व वा ठता (?) वा
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