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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
“पछी सम्वत् १६०८ वर्षे ऋषि सर्वा नो शिष्य ऋषि सदारंग जुदो थयो । तेह थी उत्तराधी लुंका थया ।"
इस उल्लेख से यही सिद्ध होता है कि वि० सं० १६८० में ज्येष्ठ शुक्ला एकम के दिन हीरागरजी, रूपचन्दजी और पंचायणजी ने नागौर में श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण कर जिस प्रकार नागौरी लुकागच्छ की स्थापना कर लोंकागच्छ की दूसरी शाखा प्रचलित की, ठीक उसी प्रकार वि० सं० १६०८ में सदारंगजी ने उत्तराधि कागच्छ के नाम से लोंकागच्छ की एक दूसरी शाखा प्रचलित की हो ।
जहां तक लोकाशाह का निवास स्थान जालौर होने का प्रश्न है श्री वाडीलाल मोतीलाल शाह को उपलब्ध हुए कुछ पन्नों के अतिरिक्त लोंका गच्छीय अथवा लोंकागच्छ के प्रतिपक्षियों के साहित्य में अथवा किसी भी पट्टावली में कहीं भी इस प्रकार का उल्लेख नहीं पाया जाता कि लोंकाशाह जालौर के निवासी थे । यह सम्भव हो सकता है कि लोंकाशाह युवावस्था में कभी जालौर गये हों और वहां भी कुछ समय तक श्रुतलेखन के रूप में उन्होंने श्रुतसेवा का कार्य किया हो और उस स्वल्पकालीन जालौर के सम्भावित निवास के कारण किसी लेखक ने उन्हें जालौर का निवासी लिख दिया हो । किन्तु इस अनुमान के समर्थन में भी कहीं कोई ठोस प्रमाण अद्यावधि उपलब्ध नहीं हुआ है । अतः धर्म प्राण लोंकाशाह का जालौर निवास स्थान होना मान्य नहीं हो सकता ।
६. लोंकागच्छीय यति भानुचन्द्रजी ने लोकाशाह के जन्म स्थान, उनकी जाति और माता पिता के नाम का उल्लेख करते हुए दयाधर्म चौपाई नाम की अपनी वि० सं० १५७८ की कृति में लिखा है :--
सोरठ देश लीमडी ग्रामे इ, दशा श्रीमाली डूंगर नाम इ । घरणी चूडा हि चित्त उदारी, डीकरो जायो हरख पारी || ३ ||
अर्थात् सोरठ देश के लीमडी नामक ग्राम में दशा श्रीमाली जातीय डूंगर नामक जैन धर्मानुयायी की पत्नी चूडा ने लोंकाशाह को जन्म दिया और चारों ओर अपार हर्ष की लहर दौड़ गई ।
७. स्थानकवासी साधु नागेन्द्र चन्द्र जी के पास उपलब्ध पट्टावली में श्री वाडीलाल मोतीलाल शाह को लोंकाशाह के निवास स्थान के सम्बन्ध में निम्नलिखित पद्य प्राप्त हुए :
एह अवसर पोसालिया, गढ जालौर मझार । ताडपत्र जीरण थयां, कुलगुरु करे विचार ||४०||
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