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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
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करम विवर जां लगइ नवि होइ, तां लगइ हीया सरिसिऊं जोइ । भला भलेरा भूला घर, वचन न मानिउं डाहा तरणुं ||२०|| इक जम्माल बीजू गोसाल, त्रीजु माहिल प्रति चुसाल । विशेष विचार करतां पडया, निविड कर्मि ते गाढा नड्या ||२१|| केती बात अनेरा तरणीं, शीष न मांनी जिरणवर तरणीं । fafas कर्म नु एहिनांरण, जाति वाड्या न वि मूं कइ मारण ।। २२ ।। कूलबालु रिषि मानिइं रलिउ, मागधि का गणिका नइ मिलिउ । थूलभद्र नुं स्पर्धा कारि, मान अंगइ कौशा घर बारि ।। २३।। मान छइ ए मोटउ दोष, तेइ थिकी उपज्जइ रोष । रोषइं जीव हुइ प्रति भ्रांत, हरख कीरति नवलुं दृष्टान्त || २४|| मान त्यजी जे गुरु ग्रनुसरइ, तेहनी शिक्ष्या दीधो करइ | ते सुसाधु सुश्रावक जारिण, निश्चिई निरमल गुरण नी षाणि ।। २५ ।।
-भाग ४
भद्रबाहु गुरु य गुणधार, चवदह पूरब ना भंडार । श्रुतः केवलि जे कहीया सही, एय बात तु एतइ रही || २६॥ तेहनु वचन न मानइ रती, अक्षर खंड्या लुकामती । तेह नुं कीजइ किसिउं वखारण, हेया सरि खिउं जोउ जारण || २७।। श्री सिद्धान्त जारण इम कहंई, धन्य हं धुरि ते प्रसरण लहई | जिगवर वारणी जे प्राचरई, पूरब मुनिवर सवि ऊ घर इ ।। २८ ।। बीजा धन्य तु ते परिण जारिण, भरिया जिरण वारणी जारणी रुरण जुगिया । कारण लगइ ते न सकइ करी, उपदेसइ परिण जारणी खरी ||२६|| त्रीजा धन्य तु ते वख्यारिण, जिरणवर वाणी सांची जाणि । करतां नइ जे दिइं बहुमान, किसिउ न आणइ मनि अभिमान ।। ३० ।। चथय धन्य तु त्रिणिक चियारि, हीया सरसिंउं जोइ विचारि । करतां नु नवि बोलइ दोष, मनि मानइ गाढउ संतोष ।। ३१ ।। धन्य तणां एचियारि प्रकार, कहिया प्रागमि जाणे सार । हरख कीरति न वि एक इ छबइ, कंहु कवीसर केतु कवइ || ३२।। जीव अछइ अनादि अनंत, आंबा लींब तर दृष्टांत | इम जाणी ए संगति त्यजु, सुगुरु तरणा पय भवि भवि भजउ ||३३॥
इति प्रतिबोध कुलकं ॥
अपनी वि० सं० १५३० की कृति “लुका मत प्रति बोध कुलक" में कुलककार ने अपनी आंखों देखे लोंकागच्छ के सर्वव्यापी वर्चस्व पर अपने आन्तरिक शोकोद्गार अभिव्यक्त करते हुए जो लिखा है, उसका सारांश इस प्रकार है :
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