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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] लोकाशाह
[ ६५७ तेहज अविरति न ठाम हियइपाडयां जाणी वैराग्यइं करी अध्यवसाय विशेषिइं अविरतिनइ छांडवइ करी अनाश्रव नां काम थाइ, एतलाइ कर्मबंध ना ठाम न थाई।
तथा को (इ) एक एहना अर्थ फेरवी नइ कहइ छइ–'जे आसवा' कहितां जे धर्मनइं कारणई हिंसा करीइ तिहां निर्जरा थाइ ।
तथा वली केतलाएक इम कहई छई-जे धर्मनइं काजइं हिंसा कीजइ ते हिंसा न कहीइ।
तु हवइ डाहा हुइ ते विचारी जोज्यो, जउ धर्मनई काजइं हिंसा करतां निर्जरा थाइ, अनइ जउ धर्मनइं काजइं हिंसा कीजइ ते हिंसा न कहीइ तु रेवतीनु पाक श्री महावीरइ सिं न लीधु ?
तथा कोई एक धर्मनइं काजइं आधाकर्मी आहार करी साधुनई दिइ ते साधु न लिइ ते स्या भणी तथा वखाण करतां मुहडइ छेहड़, (छेड़ो) तथा हाथ दिइ स्या भणी?
तथा धर्मनई काजइं हिंसा परूपई तेहनई वीतरागे अनार्यवचनना बोलणहारा कां कह्यां?
तथा जे श्रमण माहण हिंसा परूपइ तेहनइं "बहुदंडणाणं, मुडणाणं जाव तमाई मरणाणं, पीआमरणाणं' इत्यादि बोल का कह्या ?
विवेकी हुइ ते विचारी जोज्यो। अनइ वली जु धर्मनइ कीधइ आश्रव नहीं तु साधु ईर्याइं चालइ ते स्या भणी ? पणि जाणज्यो जे सूत्रविरुद्ध कहइ छ । एह त्रीजु बोल ।”
४.
चउथउ बोल :
"हवइ चउथ उ बोल लिखीइ छइ । तथा श्री वीतराग देवइ श्री सूयगडांग अध्ययन १७ मई एहव कहिउं—जे पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिणनइ विषइ एरिणं परइं मोक्ष पामइ ते अधिकार लिखीइ छइ ।' .
सूयगडांग सूत्रना पुडरीक नामना सत्तरमा अध्ययननो पाठ नीचे मुजब छे:
“से बेमि पाईणं वा जाव एवं से परिन्नायकम्मे एवंसि विवेअकम्मे, एवंसि वि अंतकारएभवतीतिमक्खायं, तत्थ खलु भगवता छज्जीवनिकायहेउ पन्नत्ता तं जहा-पुढ़वीकाइए जाव तसकाइए से जहानामए मम अस्सायं. दंडेण वा, अट्ठीण वा, मुट्ठीण वा, लेद्ण वा, कवालेण वा आउट्टिज्जमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा,
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