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। जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
संत्रस्त हो सिंह तत्काल लौट गया । अद्ध रात्रि में उस हृष्ट-पुष्ट कोंकणीय साधु ने देखा कि दूसरा सिंह उसकी ओर बढ़ रहा है। उसने फिर घनरव गम्भीर स्वर में हकाल की पर सिंह सोते हुए साधुओं की ओर बढ़ता ही गया । कोंकण प्रदेशीय उस साधु ने सिंह की अोर झपट कर पहले की अपेक्षा अधिक शक्ति लगाकर अपने हाथ के लगुड से सिंह पर प्रहार किया। वह सिंह भी जिस अोर से पाया था उसी ओर भाग गया। ब्रह्म मुहूर्त में उस जागृत साधु ने देखा कि एक और तीसरा विकराल केशरी द्रुत गति से छलांगें मारता हुआ उन सोते हुए साधुओं की ओर बढ़ रहा है तो उसने पुनः बड़े वेग से शार्दूल को ललकारा। इस पर भी जब शेर उनको पोर बढ़ता ही गया तो उसने विद्युत् वेग से सिंह की अोर झपटते हुए अपनी पूरी शक्ति लगाकर सिंह के कपोल पर लगुड का भरपूर वार किया। सिंह उस एक ही भीषण प्रहार से वहीं छटपटाता हुआ पृथ्वी पर गिर कर पंचत्व को प्राप्त हो गया। इस प्रकार रात्रि व्यतीत हुई । सूर्योदय के अनन्तर प्राचार्यश्री ने अपनी शिष्य मण्डली के साथ उस वन में आगे की अोर विहार किया। प्रस्थित होते ही रात्रि विश्राम-स्थल के पास ही उन्होंने एक सिंह को मरा पड़ा देखा । कुछ दूर आगे बढ़ने पर उन्होंने दूसरे सिंह को और उससे कुछ आगे चलने पर उन्होंने तीसरे सिंह को मरा पड़ा देखा । वस्तुस्थिति यह थी कि जिस सिंह पर कोंकणीय मुनि ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर लगुड का प्रहार किया था वह सिंह तत्काल उसी स्थान पर मर गया, जिस सिंह पर अपनी आधी शक्ति लगाकर प्रहार किया था वह थोड़ी दूर चलकर निष्प्राण हो पृथ्वी पर गिर पड़ा और जिस पहले आये हुए सिंह पर अपनी शक्ति के चतुर्थांश से लगुड प्रहार किया था वह मुनियों के रात्रि विश्राम स्थल से कोसार्द्ध दूरी पर पहुंचते ही पंचत्व को प्राप्त हो गया। कोकण प्रदेशीय मुनि ने अपने प्राचार्यदेव से उन तीन सिंहों के निष्प्राण कर देने के अपराध के लिए प्रायश्चित्त देने की प्रार्थना की । प्राचार्य ने कहा :- "तुम अालोचना मात्र से ही शुद्ध हो गये हो । इस प्रकार प्राचार्यादिक की रक्षा हेतु हिंसा करने पर भी हिंसा करने वाला शुद्ध होता है । (पाप का भागी नहीं होता)।” इस प्रकार प्राणातिपात के सकारण सेवन की कल्पितता के सम्बन्ध में विवेचन समाप्त हुआ।
- धर्मप्राण लोंकाशाह ने पंचेन्द्रिय प्राणी की हत्या करने वाले पंच महाव्रतधारी को पंचेन्द्रिय प्राणी की हत्या के पाप का भागी न बता पूर्णतः शुद्ध बताने वाले पाठ को सम्पूर्ण पंचांगी जिन्हें आगम तुल्य मान्य है उन प्राचार्यों (श्रमणों, श्रमणियों, श्रमणोपासकों एवं श्रमणोपासिकाओं) के समक्ष रखते हुए यह स्पष्ट किया है कि एकमात्र आगमों को ही सर्वोपरि एवं परम प्रामाणिक मानने के स्थान पर यदि पूर्ण पंचांगी को आगम तुल्य प्रामाणिक मान लिया गया तो उस . दशा में पंचेन्द्रिय प्राणियों की हत्या साधु सकारण कर सकता है इस सिद्धान्त या , मान्यता को भी मानना होगा। “सव्वं सावज्जं जोगं जावज्जीवाए पच्चक्खामि तिविहं तिविहेणं" के आगमिक पाठ के उच्चारणकर्ता पंच महाव्रतधारी के लिए. यह कहां तक उपयुक्त होगा इस पर विज्ञजन विचार करें।
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