________________
५५८ ]
[
जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग-४
और अति विनम्र शब्दों में अपने आन्तरिक उद्गार अभिव्यक्त करते हुए कहा :"भगवन् ! मैं पागम प्रतिपादित विशुद्ध श्रमणाचार का निरतिचार पालन करते हुए शासन नायक के पाराधक श्रमण रूप में अपना जीवन व्यतीत करना चाहता हूं। आप मुझे अाज्ञा के साथ आशीर्वाद दीजिये कि मैं अाराधक के रूप में अपने जीवन को सफल बनाने में सक्षम हो सकू।"
__ आचार्यश्री सिद्धसिंह ने मुनि कुमार को उसकी इच्छा के अनुरूप प्राज्ञा प्रदान करते हुए कहा :-"वत्स ! तुम एक सफल आराधक के रूप में अपना जीवन व्यतीत करते हुए आगम प्रतिपादित श्रमण मर्यादाओं की पुन: प्रतिष्ठापना करो।"
अपने गुरु की आज्ञा प्राप्त कर कुमार मुनि ने अडसठ अक्षरों वाले मन्त्र की आराधना, जीयभयाणं तक शक्रस्तव का पाठ, तीन स्तुति पूर्वक देववन्दन, पाक्षिक, चातुर्मासिक, पर्युषण पर्व, आगमोक्त प्रमाण से करने, श्रावक सामायिक करते समय ईर्या पथिक का प्रथम उच्चारण करे इत्यादि प्रतिज्ञाएं कर श्रेरिण, प्रतर, वर्ग, महाभद्र, सर्वतोभद्र आदि जो आगमोक्त विधान हैं, उनके अनुरूप आचरण एवं उपदेश करने की प्रतिज्ञा कर अपने गुरु के उपाश्रय से विहार किया। वे अप्रतिहत विहार करते हुए स्वयं विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने लगे। उन्होंने विहार क्रम से स्थान-स्थान पर घूम कर आगमोक्त विधि से उपदेश देते हुए जिन शासन का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया।
उन्हीं दिनों पूणिमा गच्छ के प्राचार्य श्री देवभद्रसूरि के उपदेश से यशोदेव नामक एक भव्य प्राणी प्रतिबुद्ध हुआ। उसने माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर सम्वत् ११६६ में देवभद्रसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। अपने गुरु के पास शास्त्रों के अध्ययन पूर्वक सभी विद्याओं में यशोदेव मुनि ने निष्णातता प्राप्त की। शास्त्रों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर लेने पर मुनि यशोदेव ने भी अपने गुरु देवभद्रसूरि से कुमार मुनि की ही भांति प्रश्न किया :-"भगवन् ! आज सर्वत्र आगम के विपरीत आचरण क्यों हो रहा है ?" उत्तर में देवभद्रसूरि ने कहा :-"वत्स ! काल प्रभाव के परिणामस्वरूप इस प्रकार के आचरण करने वालों का बाहुल्य होने से ही श्रमणाचार में शैथिल्य का प्राचुर्य है । इस समय प्रागमोक्त विधि से श्रमणाचार का पालन करना कठिन है।"
अपने गुरु की इस प्रकार की बात सुनकर यशोदेव मुनि ने भी एक सच्चे आराधक के रूप में प्रागमोक्त विधि से अपने जीवन को सफल करने का निश्चय कर लिया और विक्रम सम्वत् १२१२ में अपने गुरु से प्राचार्य पद प्राप्त कर पृथकशः विचरण करना प्रारम्भ कर दिया। प्राचार्य यशोदेव ने विक्रम सम्वत् १२१४ में आगम पक्ष की स्थापना की। इस प्रकार आगमिक पक्ष का प्रचार
१. आगमिक गच्छ पट्टावली, श्लोक संख्या २
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org