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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] . तपागच्छ
[ ५७५ कालान्तर में वृद्ध पौषालिक के प्राचार्य विजयचन्द्र सूरि शनैः शनैः शिथिलाचार की ओर प्रवृत्त होने लगे।
चैत्यवासियों के सुदीर्घकालीन संसर्ग एवं वर्चस्व आदि के परिणामस्वरूप वस्तुतः शिथिलाचार श्रमण समूह में इतनी गहराई तक घर कर गया था कि क्रियोद्धार के माध्यम से नवगठित श्रमण परम्पराओं में भी स्वल्प काल के पश्चात् ही शिथिलाचार के बीज अंकुरित हो उठते और चारों ओर शिथिलाचार का बोल-बाला हो जाता । इस सबका परिणाम यह होता था कि जिन विकृतियों एवं बुराइयों को निर्मूल करने के लिये क्रियोद्धार का क्रान्तिकारी कदम उठाकर कोई श्रमणश्रेष्ठ आगमानुसारिणी एवं विशुद्ध परम्परा को जन्म देते, उस परम्परा में ही स्वल्प काल में वे सभी विकृतियां पूर्वापेक्षया इतने प्रबल वेग से अभिवृद्ध हो उठतीं कि पुनः किसी महापुरुष को क्रियोद्धार करने के लिए अग्रसर होना पड़ता । यह क्रम सतत चलता रहा ।
आचार्य जगच्चन्द्रसूरि ने वि. सं. १२८३ में चित्रवाल गच्छ के उपाध्याय देवभद्र की सहायता से क्रियोद्धार किया। किन्तु उनके पट्टधर वृद्ध पौषालिक शाखा के प्राचार्य विजयचन्द्रसूरि ने न केवल स्वयं को ही अपितु अपने प्राज्ञानुवर्ती श्रमण-श्रमणी संघ को भी शिथिलाचार की अोर प्रवृत्त करते हुए साधु के लिये वस्त्रों की गठड़ी रखने, नित्य घृत, दूध आदि विकृतियां ग्रहण करने, यथेच्छ वस्त्र प्रक्षालन, फल-शाक ग्रहण करने आदि दोषपूर्ण निम्नलिखित ग्यारह बातों की खुली छूट प्रदान करदी :. १. साधुए वस्त्रनी पोटलियो राखवी । २. हमेश विगय वापरवानी छूट ।
वस्त्र धोवानी छूट। गोचरी मां फल-शाक ग्रहण करवानी छूट । साधु-साध्वियों ने नीवी नां पच्चखाण मां घृत वापरवा नी छूट ।
साध्वीए बहोरी लावेल आहार. साधु ने स्वीकारवानी छूट । ७. हमेश बे प्रकार ना पच्चखारण नी छूट ।
गृहस्थों ने राजी राखवा तेमनी साथे प्रतिक्रमण करवानी छूट।
संविभाग ने दिवसे तेने घेर बहोरवा जवानी छूट।। १०. लेप नी सन्निधि राखवा नी छूट । ११. तरतनूंज ऊनूं पाणी बहोरवानी छूट, विगेरे विगेरे।
-तपागच्छ पट्टावली पं० श्री कल्याण विजयजी महाराज द्वारा लिखित पृष्ठ १६८
शनैः शनैः स्थिति यहां तक पहुँच गई कि वि. सं. १२८३ में क्रियोद्धार के माध्यम से संस्थापित इस यशस्विनी क्रियानिष्ठ तपागच्छ परम्परा में भी इसके प्रादुर्भाव के १७४ वर्ष पश्चात्, वि. सं. १४५७ के आसपास, तपागच्छ के पचासवें
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