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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
विशाखगणि
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इन्द्रनन्दी कृत श्रुतावतार, ब्रह्म हेमचन्द्र कृत श्रुतस्कन्ध आदि में इनके आधार पर बनी दिगम्बर परम्परा की पट्टावलियों में एवं तथाकथित 'नन्दी प्राम्नाय की पट्टावली' में चतुर्दश पूर्वधर अन्तिम श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु के पट्टधर के रूप में विशाख नामक प्राचार्य का उल्लेख उपलब्ध होता है जिन्हें कि प्रथम दशपूर्वधर बताया गया है। इन विशाखाचार्य के अतिरिक्त अन्य किसी विशाखाचार्य के होने का उल्लेख दिगम्बर परम्परा की पट्टावलियों में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। इन विशाखाचार्य के पट्टधर पद पर आसीन होने का समय दिगम्बर परम्परा के प्रायः सभी उपर्युल्लिखित ग्रन्थों में वीर निर्वाण सं० १६३ बताया गया है । वीर निर्वाण सम्वत् १६३ से कब तक वे प्राचार्यपद पर आसीन रहे इस सम्बन्ध में ये सभी ग्रन्थ मौन हैं । इनमें केवल इतना ही उल्लेख है कि “वीर निर्वाण सम्वत् १६३ से वीर निर्वाण सम्वत् ३४५ तक की समुच्चय रूपेण १८३ वर्ष की कालावधि में विशाख
आदि ११ (ग्यारह) प्राचार्य दशपूर्वधर हुए।" नन्दी आम्नाय की 'पट्टावली' में विशाखाचार्य का प्राचार्यकाल दस वर्ष बताया गया है । इससे यही फलित होता है कि विशाख मुनि का प्राचार्यकाल वीर निर्वाण सम्वत् १६३ से १७३ तक अर्थात् दस वर्ष का रहा ।
तो अब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या वीर निर्वाण सम्वत् १६३ से १७३ तक आचार्यपद पर रहे दस पूर्वधर विशाखाचार्य ही निशीथ की प्रशस्ति में उल्लिखित विशाखगरणी हैं ?
अनेक ठोस तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वीर निर्वाण सम्वत् १६३ से १७३ तक प्राचार्यपद पर रहे हुए विशाखाचार्य किसी भी दशा में उक्त प्रशस्ति द्वारा अभिप्रेत विशाखगणी नहीं हो सकते ।
(१) पहला ठोस प्रमाण यह है कि दिगम्बर परम्परा के किसी भी प्राचार्य
के नाम से पहले महत्तर विशेषण लगाने की कोई परम्परा ही नहीं रही है । दिगम्बर परम्परा के उपलब्ध साहित्य में किसी भी प्राचार्य
के नाम से पहले महत्तर शब्द का उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता । (२) प्राचार्य के नाम से पहले महत्तर विशेषण का प्रयोग वीर निर्वाण
की बारहवीं शताब्दी के पूर्व कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। (३) निशीथ की चूरिण के कर्ता संघदास गणी महत्तर हैं, जिनका कि
समय विक्रम की सातवीं शती के अन्तिम चरण से पाठवीं शती का पूर्वार्द्ध है । यह तो एक निर्विवाद ऐतिहासिक तथ्य है। निशीथ भाष्य के रचनाकार जिनभद्र क्षमाश्रमण के शिष्य सिद्धसेन क्षमाश्रमण (सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न एवं उत्तरवर्ती) हैं, यह भी एक निर्विवाद
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