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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जैन संघ की स्थिति
[ ६२७ संघ छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त होकर एक क्षीण अथवा दुर्बल धर्मसंघ के रूप में अवशिष्ट रह गया। इससे न केवल जैन धर्म संघ अशक्त ही हुआ बल्कि भिन्न-भिन्न गच्छों की भिन्न-भिन्न मान्यताओं के कारण महान् धर्म संघ कलह ईर्ष्या द्वेष का गढ़-सा बन गया । इसकी दशा दयनीय-सी हो गई।
उपरिवरिणत विभिन्न गच्छों के परिचय में एवं "सुधर्म गच्छ परीक्षा" में भगवान् महावीर के छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त धर्म संघ की जिस दारुण दशा का चित्रण किया गया है, उसी प्रकार की दशा सैकड़ों शिलालेखों से भी प्रतिध्वनित होती है। उन शिलालेखों से साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी सहज ही में अनुमान लगा सकता है कि एक ही प्रदेश में कितनी बड़ी संख्या में गच्छ सक्रिय थे एवं अपने अस्तित्व को सर्वाधिक सशक्त बनाने के लिये प्रयत्नशील थे । इस प्रकार की बिखराव की स्थिति का द्योतक एक उदाहरण यहां प्रस्तुत किया जा रहा है :
"प्रतिष्ठा लेख संग्रह" नामक ग्रन्थ में कुल मिलाकर १२०० (बारह सौ) प्रतिष्ठा लेखों का उल्लेख किया गया है। उन बारह सौ प्रतिष्ठा लेखों में किस-किस गच्छ के कितने-कितने प्रतिष्ठा लेख हैं इस सम्बन्ध में यहां विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है :
गच्छ का नाम
लेख संख्या
१. अंचलगच्छ २. आगमगच्छ ३. उपकेशकगच्छ ४. कडवा मति ५. कृष्णर्षिगच्छ ६. कृष्णर्षि तपापक्ष ७. कोमलगच्छ
खडायथगच्छ
खरतरगच्छ १०. खरतर मधुकरगच्छ ११. कोरंटगच्छ १२. चित्रापल्लीयगच्छ १३. चित्रावालगच्छ १४. चित्रावाल थारापद्रीय १५. चैत्रगच्छ १६. छहितरागच्छ
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