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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ रम्भपूर्ण कार्यों में सर्वोपरि विशिष्ट सक्रिय अभिरुचि आदि आगम-विरुद्ध प्रवृत्तियों को देखकर लोंकाशाह का अन्तर्मन आन्दोलित हो तड़प उठा । उन्होंने सर्वज्ञप्रणीत आगमों एवं प्रागमों के प्रणयन के लगभग ग्यारह सौ से लेकर बारह सौ-तेरह सौ वर्ष पश्चात् तक समय-समय पर अनेक प्राचार्यों द्वारा निर्मित नियुक्तियों, वृत्तियों, चूणियों एवं भाष्यों आदि प्रागमिक साहित्य का अध्ययन, निदिध्यासन, अवगाहन आलोडन-विलोडन तथा अन्तनिरीक्षण किया। आगमों के निदिध्यासन, चिन्तनमनन से लोकाशाह ने अनुभव किया कि न केवल श्रावक-श्राविका वर्ग का ही अपितु श्रमण-श्रमणी वर्ग का प्रवाह भी सर्वज्ञप्रणीत आगमों में निर्दिष्ट मुक्तिप्रद अध्यात्मपथ से नितान्त प्रतिकूल दिशा की ओर प्रवाहित हो रहा है। पंच महाव्रतों की दीक्षा ग्रहण करने वाला एक प्रकार से पूरा का पूरा साधुवर्ग सातशीलत्व के वशीभूत हो उत्तरोत्तर अधिकाधिक शिथिलाचार के गहन पंकिल गर्त में डूबता चला जा रहा है, परिग्रह के अम्बार में पानखशिख निमग्न हो रहा है। शिथिलाचार के दास बने साधु-साध्वी वर्ग ने आगम-विरोधी आडम्बरपूर्ण भौतिक प्रवत्तियां चतुर्विध संघ के मानस में प्रचलित-प्रवाहित कर न केवल श्रमणाचार को ही अपितु अहिंसाप्रधान-दयाप्राण एवं अध्यात्मपरक जैन धर्म के आगमानुसारी विशुद्ध मूल स्वरूप को भी आमूल-चूलतः परिवर्तित कर विकृत बना दिया है। धर्मधुराधौरेय बने इन द्रव्य-परम्पराओं के शिथिलाचारोन्मुखी प्राचार्यों एवं श्रमण-श्रमणियों के वर्गों ने विश्व के प्राणिमात्र के हितंकर तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपितप्रदर्शित कोटि-कोटि सूर्य सम प्रभ जैन धर्म के मूल स्वरूप की ठीक उसी प्रकार की दशा कर दी है, जिस प्रकार की कि काली-काली सघन घनघटानों के प्राटोप की प्रोट में छुपे सूर्य की।
विश्वकल्याणकारी जैन धर्म के मूल स्वरूप पर छाये बाह्याडम्बर भौतिक कर्मकाण्ड एवं शिथिलाचार के घने काले बादल तुल्य घटाटोप को छिन्न-भिन्न करने का दृढ़ संकल्प लिये लोकाशाह ने अदम्य साहस एवं शौर्य के साथ वि० सं० १५०८ में पागमानुसारिणी सर्वांगपूर्ण धर्मक्रान्ति का सूत्रपात किया। एक युगप्रवर्तक महापुरुष में जितने उत्तम गुण अनिवार्यरूपेण आवश्यक अथवा अपेक्षित होते हैं, वे सब गुण अपने समय के अनुपम आत्मबली लोकाशाह में परिस्फुटित एवं विद्युत वेग से विकसित हो चुके थे। उनकी वाणी में अमित ओज एवं अमृतोपम माधुर्य के साथ-साथ प्रबल प्रभाव प्रचुर मात्रा में विद्यमान था। उनकी लेखिनी में अवितथ तथ्य को यथार्थ में यथातथ्यरूपेण प्रकट करने, प्रतिपादित करने अथवा प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता थी। उन्होंने वाणी के साथ-साथ लेखिनी के माध्यम से सर्वज्ञप्ररूपित, सर्वदर्शी द्वारा प्रशित सद्धर्म के प्रागमानुसारी मूल स्वरूप को जन-जन के समक्ष प्रकट, प्रस्तुत एवं प्रकाशित करना प्रारम्भ किया। उन्होंने एकादशांगी के प्रमुख एवं प्रथम अंग प्राचारांग तथा सूत्रकृतांग आदि आगमों के आधार पर अपने उपदेशों एवं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी श्रमरण भगवान् महावीर के अमोघ उपदेशों के प्राधार
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