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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] विशाखगणि
इन सब तथ्यों के सन्दर्भ में विचार करने पर हमारी दृष्टि 'निशीथ प्रशस्ति' तथा तित्थोगाली पइण्णय' में वरिणत विशाखाचार्य पर केन्द्रित होती है और हम ऊहापोह करने लगते हैं कि वीर निर्वाण की बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सम्भवतः विशाख नामक प्राचार्य हुए हों जो कि युगप्रधानाचार्य परम्परा के चवालीसवें युगप्रधानाचार्य हुए हों। 'तित्थोगाली पइण्णय' में वरिणत इनके स्वर्गारोहण काल के साथ 'निशीथ प्रशस्ति' के आधार पर पुस्तक लेखन काल में हुए विशाख गरणी के सत्ताकाल की तुलना करने पर हमारा यह ऊहापोह अनुमान की संज्ञा धारण कर लेता है। जब तक इस सम्बन्ध में अन्य ठोस प्रमाण नहीं मिल जाते तब तक हमारा यह अनुमान केवल अनुमान की कोटि में ही रहेगा एवं हम अपनी सुनिश्चित मान्यता अभिव्यक्त करने की स्थिति में नहीं रहेंगे। अभी इस सम्बन्ध में खोज की आवश्यकता है।
एक अत्यद्भुत अन्य कारण से भी इतिहासविदों के लिये यह तथ्य गहन शोध का विषय बन जाता है। गवेषकों को चौंका देने वाले उस तथ्य का उद्घाटन करने से पूर्व यह बताना आवश्यक है कि पाटण के भण्डार में विद्यमान 'तित्थोगाली पइण्णय' की ताडपत्रीय प्रति का आलेखन विक्रम सम्वत् १४५२ में किया गया पर इसमें द्वादशांगी के व्यवच्छेद (ह्रास) काल का विवरण देते हुए वीर निर्वाण सम्वत् १७० में स्वर्गस्थ होने वाले अन्तिम श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु से लेकर वीर निर्वाण सम्वत् २१००० में प्रवर्तमान दुष्षम नामक पंचम आरक की कुछ ही घड़ियां शेष रहते-रहते स्वर्गस्थ होने वाले दुःप्रसह प्राचार्य के अन्तिम समय तक द्वादशांगी के भावी ह्रास का समुल्लेख किया गया है। वीर निर्वाण पश्चात् किस-किस अंग का किस-किस वर्ष में ह्रास.हमा अथवा होगा इस विवरण के साथ-साथ उन अंगों को सम्पूर्ण रूपेण धारण करने वाले अन्तिम श्रमण के नाम का भी उल्लेख किया गया है । उस विवरण का सार इस प्रकार है :
१. प्रथम दश पूर्वधर प्राचार्य स्थूलभद्र हुए। २. अन्तिम दश पूर्वधर प्राचार्य सत्यमित्र हुए। ३. वीर निर्वाण सम्वत् १००० में उत्तर वाचक वृषभ (देवद्धि क्षमा
श्रमण) के साथ पूर्वगत ज्ञान नष्ट हो जायगा । ४. वीर निर्वाण सम्वत् १२५० में दिन्न गणी पुष्यमित्र के स्वर्गस्थ होने
पर चौरासी हजार पदों वाला अति विशाल व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग सहसा अंचित (संकुचित) हो जायगा और इसके साथ ही छः अंगों का ह्रास होगा।
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