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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ वस्तु दं, जिससे यह जीवन भर सुखी रहे, ऐश्वर्य के साथ अपना जीवन बिताये"मन में इस प्रकार विचार कर जगड़ शाह ने अपनी अंगुली की बहुमूल्य रत्नजटित स्वर्णमुद्रिका उतार कर बीसलदेव के करतल पर रख दी। अलभ्य, अद्भुत् एवं अनमोल रत्न को देखते ही बीसलदेव के आश्चर्य का पारावार न रहा। क्षण भर स्तब्ध रह कुतूहलवशात् तत्क्षण उसने अपना वाम हस्त भी पर्दे के अन्दर शाह के समक्ष पसार दिया। जगड़ शाह ने तत्क्षण अपनी उसी प्रकार की दूसरी हीरकमुद्रिका भी उतार कर अपने समक्ष पसारे गये उसके वाम करतल पर रख दी।
दोनों रत्नजटित मुद्रिकाएं लेकर बीसलदेव अपने राजप्रासाद की ओर लौट गया। दूसरे दिन बीसलदेव ने जगड़ शाह को पूरे सम्मान के साथ राज्यसभा में आमन्त्रित कर उसका बड़ा सम्मान किया। राजा बीसलदेव ने राजसभा के सभासदों के समक्ष जगड़ शाह की दानवीरता की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा-"शाह ! वस्तुतः तुम मां वसुन्धरा के शृगार और सबके सम्माननीय-वन्दनीय हो, अतः भविष्य में कभी प्रजाजनों के समान तुम मुझे नमन न करोगे। तदनन्तर महाराजा बीसलदेव ने हठपूर्वक उसकी दोनों अंगुलियों में वे दोनों रत्नजटित स्वर्णमुद्रिकाएं पहना दीं और हाथी के हौदे पर बिठा कर उसे उसके घर को विदा किया।
जगड़ शाह ने दुर्भिक्षकाल में स्थान-स्थान पर भोजन की ऐसी समुचित व्यवस्था की कि सम्पूर्ण देश में एक भी व्यक्ति को दुर्भिक्ष के कारण भूख की पीड़ा का अनुभव नहीं हुआ। दुर्भिक्ष के समाप्त होने के उपरान्त भी जगड़ शाह जीवन भर तन, मन और धन से जनकल्याणकारी कार्यों में प्रगाढ़ अभिरुचि लेता रहा । इस प्रकार जगड़ शाह श्रमणोपासक ने जिनशासन की महती प्रभावना कर जैन समाज की प्रतिष्ठा में चार-चांद लगा दिये।
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