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चवालीसवें (४४) युगप्रधान श्री विशाखगरिण
तित्थोगालि पहण्णय के अध्ययन एवं मनन से इन ४४वें युगप्रधान के नाम का पता चलता है। युगप्रधानाचार्य श्री विशाख गरिण का जीवन परिचय आज के उपलब्ध साहित्य में केवल इतना ही मिलता है कि वीर निर्वाण सम्वत् २००० (विक्रम सम्वत् १५३०) में उनके स्वर्गस्थ हो जाने पर कतिपय अंग शास्त्रों का वोछेदो (वि-अवछेदः-व्यवछेदः) अर्थात् ह्रास हो गया । अब तक अन्धकार में रहे इस तथ्य पर प्रकाश डालने वाली वह तित्थोगाली पइन्नय की गाथा इस प्रकार है
वरिस सहस्सेहिं इहं दोहिं, विसाहे मुरिणम्मि वोच्छेदो ! वीर जिरणधम्म तित्थे, दोहिं तिन्नि सहस्स निद्दिट्टो ॥२०॥
इस तथ्य के प्रकाश में आने से यह अनुमान किया जाता है कि वीर निर्वाण सम्वत् १९१८ से वीर निर्वाण सम्वत् १९६३ तक युग प्रधान पद पर रहे प्राचार्य हरिमित्र के स्वर्गस्थ होने पर वीर निर्वाण सम्वत् १९६३ में प्राचार्य हरिमित्र के पट्टधर चवालीसवें युगप्रधानाचार्य के पद पर विशाख मुनि को अधिष्ठित किया गया हो और तित्थोगाली पइन्नय में विशाख मुनि का स्वर्गारोहण वीर निर्वाण सम्वत् २००० में बताया गया है, तदनुसार वे वीर निर्वाण सम्वत् १६६३ से २००० तक अर्थात् ३७ वर्ष तक युगप्रधानाचार्य रहे हों। विशाख नामक एक महान् प्राचार्य हुए हैं । इस तथ्य का प्रमाण भी आज उपलब्ध है।
निशीथ की कतिपय हस्तलिखित प्रतियों में निम्नलिखित प्रशस्ति उपलब्ध होती है :
दसण चरित्तजुत्तो गुत्तो गुत्तीसु (परि) संझणहिए। नामेण विसाह गरणी, महत्तरप्रो रणारणमंजुसी । तस्स लिहियं निस्साहिं धम्मधुराधरण पवर पुज्जस्स ।
अर्थात जो धर्म रूपी महान् रथ की धुरी को धारण करने में परम प्रवीण पर्वथा समर्थ अथवा पूर्णतः कुशल, ज्ञान, दर्शन, चारित्र से संयुत, तीन प्रकार की गुप्तियों से गुप्त, ज्ञान मंजूषा अर्थात् ज्ञान के अक्षय भण्डार तथा महत्तर की उपाधि
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