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भगवान महावीर के ५८वें पट्टधर श्री विजयसिंह के प्राचार्यकाल के अन्यगच्छीय प्राचार्य जिनप्रभसूरि
भगवान् महावीर के ५८वें पट्टधर आचार्यश्री विजयसिंहजी के प्राचार्यकाल में खरतरगच्छ की द्वितीय शाखा के प्राचार्य जिनप्रभसूरि एक लब्ध-प्रतिष्ठ ग्रन्थकार एवं महान् प्रभावक प्राचार्य हुए हैं । आपका जीवन परिचय 'खरतरगच्छ' के परिचय के साथ दिया गया है। श्री जिनप्रभसूरि खरतरगच्छ के यशस्वी प्राचार्य जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) के शिष्य थे। उन्होंने यह अटल नियम धारण कर रखा था कि वे प्रतिदिन एक नवीन स्तोत्र की रचना करने के अनन्तर ही आहार ग्रहण करेंगे । उनका यह नियम वर्षों तक निरन्तर चलता रहा और इस प्रकार उन्होंने एक हजार के लगभग नवीन स्तोत्रों की रचना की।
आपके समय में तपागच्छ उत्कर्ष की ओर अग्रसर हो रहा था। आपके शिष्य आदिगुप्त द्वारा रचित आपकी कृति "सिद्धान्तस्तव" की अवचरिण के उल्लेखानुसार पद्मावती देवी ने आपको स्वप्न में निर्देश दिया कि अब तपागच्छ का उत्कर्ष होने वाला है अतः आप अपने स्तव तपागच्छ के प्राचार्य सोमतिलकसूरि को दे दो। जिनप्रभसूरि ने स्वरचित ६०० स्तोत्र सोमतिलकसूरि को अर्पित कर दिये । एक ओर तो इतना प्रेम और दूसरी ओर जिनप्रभसूरि ने 'तपोट मत कुट्टन' नामक ग्रन्थ की रचना कर तपागच्छ के कर्णधारों और अनुयायियों को डाकिनी, शाकिनी म्लेच्छ, वधिकों की अपेक्षा भी अधिक घातक बताते हुए लिखा है
शाकिनी मुद्गलात्तानां, दृश्यतेऽद्याप्युपक्रमः ।
तपोटेनार्दितानां तु, चिकित्सा स्याद्दरा मृशम् ।।५।। अर्थात्-शाकिनी डाकिनी मुद्गल द्वारा खाये हुए का तो उपचार हो जाता है किन्तु तपोटे अर्थात् तपागच्छ का अनुयायी यदि किसी को अपने जाल में फंसा ले तो फिर उसकी रक्षा किसी भी भांति नहीं की जा सकती।
इस प्रकार जिनप्रभसूरि के स्वभाव में विरोध और सौहार्द्रभाव सद्भाव का अद्भुत समन्वय सम्मिश्रण था ।
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