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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ आपके कठोर तपश्चरण की दिग्दिगन्त में व्याप्त कीति से प्रभावित हो महाराणा जैसिंह ने आपको विक्रम सम्वत् १२८५ में तपा के विरुद से विभूषित किया।
इस प्रकार प्राचार्य जगच्चन्द्रसूरि और चैत्रवालगच्छ के उपाध्याय देवभद्र का सम्मिलित श्रमण-श्रमणी समूह लोक में 'तपागच्छ' के नाम से विक्रम सम्वत् १२८५ में प्रसिद्ध हुआ ।
मेवाड़ में जिनशासन का प्रचार करने के पश्चात् प्राचार्य जगच्चन्द्रसूरि ने गुजरात की अोर विहार किया। आप द्वारा किये गये क्रियोद्धार एवं आपके कठोर तपश्चरण की कीत्ति दूर-दूर तक व्याप्त हो गई थी। गुजरात में प्रवेश करते ही आपको श्रेष्ठिवर वस्तुपाल ने बड़े सम्मान के साथ अगवाणी की। श्रेष्ठ वस्तुपाल ने आचार्य जगच्चन्द्रसूरि को सम्पूर्ण गुजरात में धर्म प्रचार कार्य में बड़ी ही महत्वपूर्ण सहायता प्रदान की।
आचार्य जगच्चन्द्रसूरि के त्याग, तप, विद्वत्ता एवं शुद्ध प्रागमविहित श्रमणाचार आदि गुणों तथा मन्त्री वस्तुपाल के सभी भांति के समीचीन सहयोग से स्वल्पकाल में ही तपागच्छ गुजरात का एक शक्तिशाली एवं लोकप्रिय गच्छ बन गया।
• गुर्जर प्रदेश में धर्म प्रचार के परिणामस्वरूप जगच्चन्द्रसूरि के साधु-साध्वी समूह की संख्या में भी पर्याप्त वृद्धि हुई।
___मंत्री वस्तुपाल के प्रीति-पात्र दफ्तरी (महता) विजयचन्द्र ने भी जगच्चन्द्रसूरि के पास बड़े वैराग्य भाव से श्रमणधर्म की दीक्षा अंगीकार की। उन्हीं दिनों देवेन्द्र नामक तीव्र बुद्धि किशोर भी जगच्चन्द्रसूरि के पास दीक्षित हुआ । इन दोनों ने जगच्चन्द्रसूरि के पास आगमों और सभी विद्याओं का अध्ययन किया।
शाखा-भेद कालान्तर में विजयचन्द्र से 'वृद्ध पौषालिक तपागच्छ' और देवेन्द्रसूरि से 'लघु पौषालिक तपागच्छ' इन दो शाखाओं का जन्म हुआ।
__ उपाध्याय धर्म सागरजी द्वारा रचित एवं पंन्यास श्री कल्याण विजयजी द्वारा सम्पादित तपागच्छ पट्टावली के उल्लेखानुसार खम्भात के कुमारपाल-विहार नामक जिनमन्दिर में १८०० मुखवस्त्रिका वाले भक्त श्रावकों से परिवृत्त मन्त्री वस्तुपाल ने श्री देवेन्द्रसूरि को वन्दन नमन कर उनका सम्मान किया ।' १. स्तंभ तीर्थे च चतुष्पथ स्थित कुमारपाल विहारे धर्मदेशनायामष्टादशशत (१८००)
मुखवस्त्रिकाभिमंत्रि वस्तुपाल: चतुर्वेदादि निर्णय दातृत्वेन स्वसमय परसमय विदां श्री देवेन्द्रसूरीणां वंदनकदानेन बहुमानं चकार ।।।
--पट्टावली-समुच्चयः तपागच्छ पट्टावली-पृष्ठ ५८
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