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। जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
उपसर्गों के उपरान्त भी उनकी एकमात्र जिनेन्द्रदेव के प्रति अटूट आस्था के साथसाथ वीर निर्वाण सं० २०५२ से लेकर वीर नि० सं० २०६६ के बीच की अवधि में श्रमण भगवान् महावीर के ५६वें पट्टधर तपागच्छीय प्राचार्य आनन्द विमलसूरि द्वारा देरासरों एवं उपाश्रयों में मणिभद्र व्यन्तर की मूत्तियों की स्थापना सम्बन्धी स्वीकृति की घटना का तुलनात्मक अध्ययन सत्य के जिज्ञासुओं के लिए बड़ा ही रोचक सिद्ध होगा।
उपरिवरिणत साम्प्रदायिक विद्वेष के युग में भी पारस्परिक सद्भाव के कुछ उदाहरण भी जैन वाङ्मय में उपलब्ध होते हैं। एतद्विषयक तपागच्छ पट्टावली का निम्नलिखित उल्लेख द्रष्टव्य है :
".......... दान प्रापतां प्रापतां एक तुर्की शख्स साथे कुवरजी सेठनी बोलाचाली थई । तुर्की सिपाहीए सूरिजी ने पुनः फंसाववाना इरादा थी पाठ दिवस बाद कोतवाल पासे जइ कान भमेर्या । कोतवाले सिताब खान ने बात करी । खाने गुस्से थइ सुरिजी ने पकड़वा सिपाहियो मोकल्या । सिपाहियो ए झवेरीवाड़ा में आवी सूरिजी ने पकड्या । सिपाहियो सूरिजी ने ज्यारे लेइ जावा लाग्या त्यारे राघव नाम नो गन्धर्व अने श्री सोमसागर वच्चे पड्या। छेवटे हीर विजयसूरि ने छोड़ाव्या अने सूरिजी उघाड़े शरीरे त्यांथी नासी छूट्या । प्रा समये देवजी नाम ना लौंका ए तेमने आश्रय प्राप्यो हतो । केटलाक दिवसो बाद आ धमाल शान्त पड़ी अने सूरिजी पुनः प्रकट पणे विहार करवा लाग्या । ............"
तपागच्छ की पट्टावली के अनुसार भगवान् महावीर के ५८वें पट्टधर यही हीरविजयसूरि महान् जिनशासन प्रभावक प्राचार्य हुए।
'हीरविजयसूरि की परम भक्त एक चांपा नाम की श्राविका ने छः मास के उपवास का फतहपुर सीकरी में उग्र तप किया। संघ ने श्राविका चांपा की इस तपश्चर्या की प्रभावना के उपलक्ष्य में विविध वाद्य-यन्त्रों के साथ शोभा यात्रा (वरघोड़ा) निकाली । बादशाह अकबर ने अपने महलों से उस विशाल शोभा-यात्रा के सुन्दर दृश्य को देखकर अपने अनुचरों से उस आयोजन के सम्बन्ध में पूछताछ की। जब उसे विदित हुआ कि एक महिला ने छः मास की निराहार तपस्या की है तो बादशाह अकबर ने बड़े सम्मान के साथ तपस्विनी चांपा को राजभवन में बुलवा कर उसकी उस आश्चर्यकारिणी तपस्या के सम्बन्ध में पूछा कि वह इस प्रकार की अद्भुत तपश्चर्या कैसे कर पाई ? जब चांपा ने उत्तर में यह कहा कि यह सब मेरे पूज्य गुरुदेव हीरविजयसूरि का ही प्रताप है, तो बादशाह के अन्तःकरण में हीर
१. तपागच्छ पट्टावली, पं. कल्याण विजयजी द्वारा सम्पादित पृष्ठ संख्या २२७
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