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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
२४. अकाल में सज्झाय करने पर प्राचाम्ल किया जाय । २५. सदा (बारहों मास) एकाशन किया जाय । २६. बेले आदि के पारणे पर गुरुदेव की आज्ञानुसार तपश्चरण किया . जाय। २७. 'परिट्ठावणियागारेणं' न किया जाय। २८. अष्टमी, चतुर्दशी और शुक्ल पक्ष की पंचमी इन पांच तिथियों में
उपवास रक्खा जाय। २६. अष्टमी और चतुर्दशी के दिन विहार न किया जाय । ३०. नीवी में एक ( निवियातां थी (?) ) नीवी से अधिक न लिया
जाय। ३१. ८४ गच्छों के साधुओं में से किसी भी साधु को गुरु की आज्ञा के बिना
अपने पास न रक्खा जाय । ३२. गुरु को बिना पूछे कोई नई प्ररूपणा, किसी नई समाचारी का
उपदेश प्रारम्भ न किया जाय। ३३. सद्यः निर्मापित स्थान में न रहा जाय।
(नवो निवासस्थान न धारवो) ३४. कोरपारण वाला वस्त्र न लिया जाय । ३५. कोरे वस्त्र में सलवट डाले जाएं, एक दम नवीन (नया नटंग) अबोट
वस्त्र गीतार्थ मुनि को छोड़ अन्य कोई साधु अपने काम में न ले।
इस प्रकार ३५ बोलों की घोषणा के पश्चात् 'आनन्द विमलसूरि' ने विभिन्न क्षेत्रों में घूम-घूम कर लौंकागच्छ, खरतरगच्छ, कड़वामत, बीजामत आदि कतिपय गच्छों के विरुद्ध प्रचार करते हुए तपागच्छ को सुदृढ़ शक्तिशाली एवं लोकप्रिय बनाने का अभियान प्रारम्भ किया। क्रियोद्धार के पश्चात् आनन्द विमलसूरि ने १४ वर्ष जैसी सुदीर्घावधि तक बेले-बेले की तपस्या की। .
__ आनन्द विमलसूरि के इस कठोर तपश्चरण, उग्र विहार और स्थान-स्थान पर धर्म प्रचार के परिणामस्वरूप तपागच्छ एक शक्तिशाली बहुजनमान्य लोकप्रिय संघ के रूप में उदित हुआ।
तपागच्छ पट्टावली के उल्लेखानुसार आनन्द विमलसूरि की प्राज्ञा में विचरण करने वाले साधुओं की संख्या १८०० तक पहुँच गई थी। इसके विपरीत
१. तपागच्छ पट्टावली पृष्ठ २११
पं. कल्याण विजयजी द्वारा सम्पादित
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