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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
समय अणहिल्लपुर पट्टण नगर में स्थित भगवान् अरिष्टनेमि के मन्दिर में प्राचार्य श्री हेमचन्द्र और परमार्हत महाराज कुमारपाल देव वन्दन के लिये आये हुए थे उसी समय शीलगणसूरि और यशोदेव भी वन्दन करने के लिये पहुंचे। उन दोनों ने तीन स्तुति से देव वन्दन किया। इस पर महाराज कुमारपाल ने हेमचन्द्रसूरि से प्रश्न किया कि वन्दन की यह कौन-सी विधि है। इस पर आचार्यश्री हेमचन्द्र ने कुमारपाल से कहा कि यह जो देव वन्दन किया जा रहा है यह आगमिक विधि से किया जा रहा है । हेमचन्द्रसूरि के मुख से आगमिक विधि का देव वन्दन है यह सुनने के पश्चात् उसी दिन से शीलगणसूरि के गच्छ को लोग आगमिक गच्छ के नाम से. अभिहित करने लगे। इसके विपरीत अन्यान्य सभी पट्टावलियों में अनेक स्थानों पर इस प्रकार का उल्लेख है कि आगमिक गच्छ की स्थापना विक्रम सम्वत् १२५० में हुई।
इस प्रकार की स्थिति में यदि महाराज कुमारपाल और आचार्य हेमचन्द्र के पारस्परिक प्रश्नोत्तर से शीलगणसूरि के गच्छ का नाम आगमिक गच्छ पड़ा हो तो उस दशा में अन्य गच्छीय विभिन्न पट्टावलियों के उल्लेख की असंगतता स्वतः ही सिद्ध हो जाती है क्योंकि प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि का स्वर्गारोहण विक्रम सम्वत् १२२६ में और परमार्हत कुमारपाल का देहावसान विक्रम सम्वत् १२३० में ही हो गया था।
इस प्रकार की स्थिति में प्रागमिक गच्छ की स्थापना विक्रम सम्वत् १२१४ में हुई अथवा उसके पश्चात् विक्रम सम्वत् १२५० में यह प्रश्न भी अग्रेतर शोध का विषय बन जाता है। आशा है इस पर शोधार्थी विद्वान् अग्रेतर खोज कर प्रमाण पुरस्सर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे।
___ इस पट्टावली के उल्लेख के सम्बन्ध में दूसरी विचारणीय बात यह है कि इसमें देवभद्रसूरि का उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि एक दिन जिस समय हेमचन्द्रसूरि और परमार्हत कुमारपाल पत्तन नगरस्थ भगवान् अरिष्टनेमि के मन्दिर में देववन्दन के लिये आये हुए थे उस समय देवभद्रसूरि भी उसी मन्दिर में देव वन्दन के लिये पहुंचे और उन्होंने तीन स्तुतिपूर्वक भगवान् अरिष्टनेमि का वन्दन किया । कुमारपाल द्वारा हेमचन्द्रसूरि से यह प्रश्न किये जाने पर कि ये (देवभद्रसूरि) वन्दन कर रहे हैं यह किस प्रकार का देववन्दन है, हेमचन्द्रसूरि ने उत्तर में कहा-"यह वन्दन आगमिक विधि से किया जा रहा है।" बस उसी दिन से इस गच्छ का नाम लोक में आगमिक गच्छ के नाम से प्रख्यात हो गया। इस सम्बन्ध में जैसा कि पहले बताया जा चुका है किसी लिपिक द्वारा त्रुटि हो गई है और सम्भवतः उसने शीलगणसूरि अथवा यशोदेव के नाम के स्थान पर देवभद्रसूरि का नामोल्लेख कर दिया है। इस सम्बन्ध में यह भी विचारणीय है कि शीलगणसूरि के पश्चात्
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