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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ कहलवाया कि वह वाजपेयी यज्ञ में निर्दोष बकरों की बलि नचढ़ावे । याज्ञिक पण्डित दामोदर इस पर भी जब अपने निश्चय से न डिगा तो आचार्यश्री ने राजा के समक्ष निवेदन करके यह राजाज्ञा प्रसारित करवाई कि याज्ञिकों और आचार्यश्री जिनदत्तसूरि के बीच यज्ञ में पशुओं की बलि को लेकर शास्त्रार्थ हो । शास्त्रार्थ में जो पक्ष विजयी होगा उसी की इच्छानुसार यज्ञ में पशुओं के होमने न होमने के सम्बन्ध में निर्णय किया जायगा । राजाज्ञा से तत्काल यज्ञ बन्द कर दिया गया और निश्चित समय पर गुहिलराज मोखरा की राज्यसभा में दोनों पक्षों के बीच शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ । शास्त्रार्थ के समय राजसभा में स्वयं गुहिलराज अपने समासदों के साथ पूरे समय विद्यमान रहता । शास्त्रार्थ को सुनने के लिए दर्शकों एवं श्रोताओं के समूह चारों ओर से उमड़ पड़े । निरन्तर अठारह दिनों तक वह शास्त्रार्थ चला। अठारहवें दिन शास्त्रार्थ के नियत समय के समाप्त होने के पूर्व ही प्राचार्यश्री जिनचन्द्रसूरि ने पण्डित दामोदर और उसके आठों साथी पण्डितों को शास्त्रार्थ में निरुत्तर कर पराजित कर दिया । राजा ने शास्त्रार्थ का निर्णय सुनाते हुए आचार्यश्री जिनचन्द्र को जयपत्र दिया । जयपत्र देने के साथ-साथ बत्तीसों बकरों को अभयदान प्रदान किया । कनकाचार्य ने उसी समय राजसभा में खड़े होकर आचार्यश्री जिनचन्द्रसूरि की निम्नलिखित रूप से स्तुति की :
साहित्ये सुहितः पदे परिणताभ्यासः प्रमायां पटुनिष्णातो गणितागमेष्वपि भृशं सिद्धान्तशुद्धान्तरः । छंदोभेद विशारदः कविकुलाकेली गृहं सद्यशः,
श्री सूरि जिनचन्द्र एव जयतात् भूभृत्सभाभूषणम् ||१०||
अर्थात् साहित्य निर्माण के क्षेत्र में सदा साधिकार रूप से तत्पर एवं पूर्णरूपेरण अभ्यस्त, शास्त्रार्थ में सदा विजयी रहने वाले, गरिणत प्रागम और सभी दर्शनों के सिद्धान्तों के पारदृश्वा प्रकाण्ड पण्डित, छन्द शास्त्र के मर्मज्ञ, कविचक्रवर्ती एवं राजाओं की राजसभाओं के भूषरण, महान् यशस्वी सूरिवर जिनचन्द्र सदा-सर्वत्र जयवन्त रहें ।
इस प्रकार प्रागमिक गच्छ के छठे प्राचार्यश्री जिनचन्द्रसूरि ने अपने आचार्यकाल में जिन शासन की महती प्रभावना की ।
७. विजयसिंहसूरि : आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरि के स्वर्गारोहण के अनन्तर उनके पट्ट पर विजयसिंहसूरि आसीन हुए । वे आगमों के मर्मज्ञ विद्वान थे ।
८. प्रभसंहसूर - आचार्यश्री विजयसिंहसूरि के पश्चात् श्री अभयसिंह आचार्यपद पर आसीन हुए ।
६. श्री श्रमसिंहसूरि : श्री अभयसिंहसूरि के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर उनके पट्ट पर श्री अमरसिंहसूरि हुए ।
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