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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
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इस प्रकार की स्थिति में श्रागमानुसार जैनधर्म के आध्यात्मिक विशुद्ध स्वरूप एवं दुश्चर- कठोर श्रमरगाचार को आमूलचूल क्रियोद्धार के माध्यम से पुनः प्रतिष्ठापित करने के अति पावन कार्य में वर्द्धमानसूरि आदि उन क्रियोद्धारक महान् प्राचार्यों को किस-किस प्रकार की कठिनाइयों से जूझना पड़ा, इसकी कल्पना प्रत्येक प्रबुद्ध पाठक सहज ही कर सकता है ।
अंचलगच्छ
जैन संघ की इस प्रकार की तत्कालीन स्थिति का " अंचलगच्छ-दिग्दर्शन " में बड़े ही मार्मिक शब्दों में चित्रण किया गया है । जिज्ञासु पाठकों की जानकारी के लिये, उसके कतिपय अंश यहां उद्धृत किये जा रहे हैं :―
"गुजरात, मेवाड़, मारवाड़, बढ़ियार, सौराष्ट्र इत्यादि प्रदेशों मां चैत्यवासी सांधुयों ने राज्याश्रय मलता - मलतां तेवो अमर्याद बनी बघता गया । पाटण मां जैनाचार्य शीलगुणसूरि अने देवचन्द्रसूरि ना वासक्षेप थी वि० सम्वत् ८२१ (वि० सं० ८०२) मां वनराज चावड़ा नो राज्याभिषेक थयो होई ने वनराज चावड़ा ए ए बन्ने आचार्यों ने शिष्य - परम्परा ना हक्क मां ताम्रपत्र पर फरमान लखी प्राप्यु के
प्राचार्यों ने माननारा चैत्यवासी यतियो ने सम्मत मुनिराजो ज पाटरण मां रही शके, बीजाप्रो रही शकसे नहीं । चावड़ाओ ना राज्य प्रदेश मां परण या फरमान नी असर पड़ी । परिणामे संवेगी साधुप्रो भाटे तो पाटण ना द्वार बन्धज रह्यां, परन्तु एमना राज्य प्रदेश मां परण चैत्यवासियो नी इच्छाओ ने अधीन एमने रहेवु पड़तु । एटले हद सुधी बात पहुंची के उद्योतनसूरि ना शिष्यों ने कोई ग्राम के नगर मां सूरिपदे स्थापवा भाटे परण मुश्केल बनेलु, परिणामे श्राबू ऊपर टेली नाम नां ग्राम नी नजीक वट वृक्ष नी नीचे छारण ना वासक्षेप थी सर्वदेवसूरि तथा अन्य शिष्यों ने आचार्य पदे स्थापवा मां आवेला । आावी रीते चावड़ाओ ना राज्य प्रदेश मां चैत्यवासियो विना अन्य साधुनों ने आववानो पण राज्य तरफ थी प्रतिबन्ध हतो ।
( १७ ) .... 1.... वनराज ( वि० सं० ८०२), योगराज, क्षेमराज थी ते ठेठ सामन्त सिंह सुधीना चावड़ा राजाश्रो चैत्यवासी साधुत्रों ने धर्मगुरु ने राजगुरु तरीके मानता हता । चैत्यवासी प्राचार्यो प्राथी ए राजानो ना धार्मिक संस्कारों नी क्रिया पण करता हता । केटलाक नो एवो मत परण छे के चैत्यवासी प्राचार्यो राजा ना धार्मिक पुरोहितो नुं धार्मिक कार्य करता हता । ते थी जैनो ना जैन वेद ना प्रचार थी राजकीय धर्म तरीके जैन धर्म प्रवर्ततो हतो । प्रा थी चावड़ाओ ना शासन मां वैदिक समुदाय नुं वर्चस्व नहींवत् जेवुं ज रह्य, जैन वेदो, उपनिषदो द्वारा जैन ब्राह्मणो धार्मिक प्रवृत्ति करी ने जैन धर्म नी आराधना करता हता ।
(१८) महून जिरणारणम्नी उपदेश कल्पवल्ली नी टीका मां जरणाववा माँ आव्यु ं छे के आगमो अने निगमो ए बन्ने ने भेगा कंर्या विना जैन तत्वो नु समाधान थाय नहीं । जैनागमो अने जैन निगमो ए बन्ने द्वारा जैन धर्म विश्व मां प्रवर्ती शके
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