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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अंचलगच्छ
[ ५४३ स्थिताः । ततस्तेन भक्तिमता श्रेष्ठिना सूरिभ्यस्तेभ्यो रूप्यनिर्मितः सुखपालश्छत्रचामरयुतः प्राभृतीकृतः मोहाविर्भूतदृष्टिरागत: सूरिभिरपि तत्प्राभृतं स्वीकृतं । ततः समुद्रश्रावकोपरोधतस्ते वृद्धा वीरचन्द्र सूरयस्तत्सुखपालस्था एव जिनमंदिरादिषु गमनं चक्रुः । तत्स्पर्द्धया चैकेन सामन्ताख्येन धनवता श्रावण सोमप्रभसूरिभ्योऽपि स्वर्णरूप्यनिर्मितः सुखपालश्च्छत्रचामरयुतस्तथैव प्राभृतीकृत: कालानुभावतस्तेऽपि संयमाचारं विस्मृत्य सुखपालस्था एव गमनागमनं चक्रुः । एवं क्रमेण तयोर्महतोरपि सूरयो परिवारयतयोऽप्याहारादि शुद्धिमगवेषयन्तः शिथिलाचारं प्रतिपेदिरे श्रावका अपि दृष्टिरागमोहिताः परस्परं स्पर्द्धयाधाकर्मादिदोषोपपेताहारादिभिस्तान् प्रतिलाभयामासुः । एवमेक सामाचारीयुतयोरपि द्वयोः सूरयो परिवारे चारित्रशैथिल्यं प्रकटीबभूव । परस्परं च महती स्पर्धा संजाता।"१
देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण के अनन्तर भगवान् महावीर के धर्मसंघ में द्रव्य पूजा की परमोपासिका परम्पराओं ने जो विकृतियां उत्पन्न की, जो शिथिलाचार प्रारम्भ कर उसे पराकाष्ठा तक पहुँचाया उन विकृतियों और शिथिलाचार के उन्मूलन हेतु साहसी श्रमणोत्तमों ने समय-समय पर क्रियोद्धार के माध्यम से अभिनव धर्मक्रान्ति का बिगुल बजाया । उन्हीं साहसी श्रमणोत्तमों में से एक श्रमणोत्तम थे प्रातःस्मरणीय आर्य रक्षितसूरिं। उन्होंने अपने लक्ष्य में उल्लेखनीय सिद्धि भी प्राप्त की। उनके पश्चात् उनके शिष्य जयसिंहसूरि, प्रशिष्य धर्मघोषसूरि एवं प्रप्रशिष्य महेन्द्रसूरि ने उनके द्वारा बताये हुए त्याग-तप-अपरिग्रह एवं विराग के पथ पर अग्रसर होते हुए विधिपक्ष गच्छ की प्रतिष्ठा में निरन्तर वृद्धि की । किन्तु क्रान्ति के सूत्रधार इस विधिपक्ष, अंचलगच्छ में भी रक्षितसूरि द्वारा किये गये क्रियोद्धार से पूर्व की शिथिलाचाराभिमुखी प्रवृत्ति पूरे वेग के साथ। इसके ही पंचम पट्टधर से पुनः पल्लवित और प्रसरित होती ही गई ।
__सुविहित कहे जाने वाले अधिकांश गच्छ भी शनैः शनैः चैत्यवासी परम्परा द्वारा आविष्कृत विकृतियों, विकारों एवं शिथिलाचार से भरपूर आगम विरोधी पथ के पथिक बनने लगे। इस सम्बन्ध में 'अंचलगच्छ दिग्दर्शन' में जो बड़े ही हृदयस्पर्शी उद्गार अभिव्यक्त किये गये हैं उन्हें अविकल रूप से तटस्थ विचारकों के लाभार्थ यहां प्रस्तुत किया जा रहा है :
__ “१०२ । चैत्यवासीमो नां दुर्ग मोना असर थी पण सुविहित साधुनो अप्रभावित रही शक्या नहीं, श्रे अंगना अनेक उदाहरणो इतिहास ने पाने नौंधाया छ । निःशंक रीते आ बधु चैत्यवासियो ना जीवन व्यवहार नु असरनोज प्रत्यक्ष फल हतु।
१. अंचलगच्छ दिग्दर्शन, पृष्ठ १३०
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