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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
प्रायः सभी गच्छों की पट्टावलियों में क्रम संख्या एवं नामों में साधारण अथवा नगण्य अन्तर के अतिरिक्त पूर्णतः साम्यता दृष्टिगोचर होती है ।
इससे आगे की अंचलगच्छ की पट्टावलि निम्नलिखित रूप में उपलब्ध होती है । यथा :
१.
३५. उद्योतनसूरि - इनसे बड़गच्छ का प्रादुर्भाव हुआ ।
३६. सर्वदेवसूरि
३७. पद्मदेवसूरि
३८. उदयप्रभसूरि
३६. प्रभानन्दसूरि
४०. धर्मचन्द्रसूरि
४१. विनयचन्द्रसूरि
४२. गुणसागरसूरि
४३. विजयप्रभसूरि
४४. नरचन्द्रसूरि
४५. वीरचन्द्रसूरि
४६. जयसिंहसूरि
४७. आर्य रक्षितसूरि ( अपर नाम विजयचन्द्रसूरि ) अंचलगच्छ की सभी पट्टावलियों के अनुसार इन्हीं से विधि पक्ष, जो आगे चलकर अंचलगच्छ के नाम से विख्यात हुआ, की उत्पत्ति हुई ।
४८. जयसिंहसूरि - इनके आचार्य काल में विधि पक्ष के श्रमण श्रमणी परिवार में अद्भुत वृद्धि हुई, जो इस प्रकार है, साधु २१२०, साध्वियां ११३०, प्राचार्य १२, वाचनाचार्य उपाध्याय २०, पंडित १७३, महत्तरा १ और प्रवृत्तिनियां ८२ हुए । '
४९. धर्मघोषसूरि
५०. महेन्द्रसूरि - इन्होंने तीर्थमाला, शतपदी विवरण और गुरु गुरणषट्त्रिंशिका की रचना की ।
५१. सिंहप्रभसूर
५२. अजित सिंहसूरि - विक्रम सम्वत् १३१६ में आचार्य पद और १३३६ में स्वर्गवास |
श्री वीरवंश - विधि पक्ष पट्टावली, गाथा १०३ से १०५ ।
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